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जैन न्याय : परिशीलन
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नव निर्माण
अकलङकदेव ने दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य नव-निर्माण का किया। जैन न्याय के जिन आवश्यक तत्वोंका उनके समय तक विकास नहीं हो सका था, उनका उन्होंने विकास किया अथवा उनकी प्रतिष्ठा की। उन्होंने अपने चार ग्रन्थ न्यायशास्त्र पर लिखे हैं । वे हैं - १ न्यायविनिश्चय (स्वोपज्ञवृत्तिसहित), २. सिद्धिविनिश्चय (स्वोपज्ञवृत्ति सहित), ३ प्रमाणसंग्रह (स्वोपज्ञवृत्तिसहित) और ४ लघीयस्त्रय (स्वोपज्ञवृत्ति सहित । ये चारों ग्रन्थ काटिकात्मक हैं । न्यायविनिश्चय में ४५०, सिद्धिविनिश्चय में ३६७, प्रमाणसंग्रह में ५७ और लघीयस्त्रय में ७५ कारिकाएँ हैं । ये चारों ग्रन्थ बड़े क्लिष्ट और दुरूह है । न्यायविनिश्चय पर वादिराज ने, सिद्धिविनिश्चय पर अनन्तवीर्यने और लघीयस्त्रय पर प्रभाचन्द्र ने विस्तृत एवं विशद व्याख्याएँ लिखी हैं । प्रमाणसंग्रह पर भी आचार्य अनन्तवीर्य का भाष्य (व्याख्या) है, जो उपलब्ध नहीं है।
अकलङक ने इनमें विभिन्न दार्शनिकों की समीक्षापूर्वक प्रमाण, निक्षेप, नय के स्वरूप, संख्या, विषय, फल का विशद विवेचन, प्रमाण के प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद, प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और मुख्य इन दो भेदों की प्रतिष्ठा, परोक्ष प्रमाण के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, आगम इन पांच भेदों की इयत्ताका निर्धारण, उनका सयुक्तिक साधन, लक्षण-निरूपण तथा इन्हीं के अन्तर्गत उपमान, अर्थापत्ति, सम्भव, अमाव आदि पर कल्पितप्रमाणों का समावेश, सर्वज्ञ की अनेक प्रमाणोंसे सिद्धि, अनुमान के साध्यसाधन अगों के लक्षणों और भेदोंका विस्तृत निरूपण तथा कारण हेतु, पूर्वचर हेतु, उत्तरचर हेतु, सहचर हेतु आदि अनिवार्य हेतुओं की प्रतिष्ठा, अन्यथानुपपत्ति के अभाव से एक अकिचित्कर हेत्वाभास का स्वीकार और उसके भेद-रूप से असिद्धादि का प्रतिपादन, दृष्टान्त, धर्मी, वाद, जाति और निग्रहस्थान के स्वरूपादि का जैन दृष्टि से प्रतिपादन, जय-पराजयव्यवस्था आदि कितना ही नया निर्माण कर के जैन-न्याय को न केवल समृद्ध और परिपुष्ट किया, अपितु उसे भारतीय न्याय शास्त्रमें वह गौरवपूर्ण स्थान दिलाया, जो बौद्ध न्याय को धर्मकीति ने दिलाया है। वस्तुतः अकलंक जैन न्याय के मध्यकाल के स्रष्टा है । इससे इस काल की 'अकलंककाल' कहा जा सकता है।
अकलंक ने जैन न्याय की जो रूपरेखा और दिशा निर्धारित की, उसीका अनुसरण उत्तरवर्ती सभी जैन तार्किकों ने किया है । हरिभद्र, वीरसेन, कुमारनन्दि, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य प्रथम, वादिराज, माणिक्यनन्दि आदि मध्ययुगीन आचार्योंने उनके कार्य को आगे बढ़ाया और उसे यशस्वी बनाया है । उनके सूत्रात्मक कथन को इन आचार्यों ने अपनी रचनाओं द्वारा सुविस्तृत, सुप्रसारित और सुपुष्ट किया है । हरिभद्र की अनेकान्तजयपताका, शास्त्रवार्तासमुच्चय, वीर सेन की तकंबहुल धवला, जय-धवला टीकाएँ, कुमारनन्दि का वादन्याय, विद्यानन्द के विद्यानंदमहोदय, तत्त्वार्थश्लोकवातिक, अष्टसहस्री, आप्तपरोक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, युक्त्यनशासना J-8