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________________ जैन न्याय : परिशीलन दरबारीलाल कोठिया प्राग्वृत्त साहित्य, इतिहास और पुरातत्त्वकी साक्षियों से यह सिद्ध हो चुका है कि जैन धर्म भारतीय धर्म होते हुए भी वह वैदिक और बौद्ध दोनों धर्मों से जुदा धर्म है । इसके प्रवर्तक महावीर न होकर उनसे पूर्ववर्ती तीर्थंकर हैं, जो २३ की संख्या में हो चुके और महावीर अन्तिम २४ वें तीर्थंकर हैं। प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव है, जिन्हें आदिब्रह्मा, आदिनाथ, बृहदेव, पुरुदेव और वृषभ नामों से भारतीय साहित्य में स्मरण किया गया है। युगारम्भ में इन्होंने प्रजा को भोगभूमि की समाप्ति होनेपर आजीविका हेतु कृषि, असि, अलि आदि वृत्तियों की दीक्षा दी थी, इससे उन्हें प्रथम प्रजापति भी कहा गया है। इनके गर्भ में आनेपर हिरण्य (सुवर्ण) की वर्षा होने के कारण इनका एक नाम हिरण्यगर्भ भी था । ऋग्वेद, अथर्ववेद श्रीमद भागवत आदि वैदिक वाङमय में भी इनकी प्रजापति, हिरण्यगर्म और ऋषभ नामों से संस्तुति की गयी है। भागवत में ऋषभावतार के रूप में इनका पूरा जीवन-चरित उपलब्ध है और वहाँ इन्हें अर्हत्धर्म का संचालक कहा गया है । ढाई हजार वर्ष पूर्व इनकी प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करके उनकी पूजा की जाती थी। खण्ड ३ गिरि-उदय गिरिकी गफाओं से प्राप्त खारवेल के शिलालेखों से विदित है कि खारवेल के राजवंश में पूजित आदि जिन की मूर्ति सम्प्रति उसके राज्यपर आक्रमण कर के ले गया था और जिसे खारवेल उसे जीतकर वापस ले आया था। * Presented in the seminar on 'Jaina Logic and Philosophy (Poona University, 1975 )
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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