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अहिंसा, पर्यावरण एवं इरियावहियासुतं गए हो, परस्पर शरीर द्वारा टकरा गए हो, अल्प-स्पर्श हुआ हो, कष्ट पहुँचाया हो, खेद पहुँचाया हो, भयभीत किए गए हो, एक स्थान से दूसरे स्थान स्थानान्तरित किए हो, प्राण रहित किए हो और इस के द्वारा जीव विराधना हुई हो तत्सम्बन्धी मेरे सब दुष्कृत्य मिथ्या हो ।
साधक को चलने की क्रिया नीचे देखकर, पूर्ण सावधानी से विवेकपूर्वक करनी चाहिए और कोई भी जीव कुचल न जाय उसका पूरा ध्यान रखना चाहिए । तथापि उपयोग की न्यूनता से या भूल से जीव-हत्या या जीव-विराधना हो जाय तो इस सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना चाहिए । छोटी-से-छोटी जीवविराधना को भी दुष्कृत समझना और तदर्थ अप्रसन्न होना यह इस सूत्र का प्रधान स्वर है।
प्रस्तुत सूत्र को हम तीन विभाग में विभाजित कर सकते हैं । १. गमनागमन की क्रिया करते समय हुई जीव हिंसा की क्षमापना । २. एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों की रक्षा की भावना ।
३. सामान्य तौर पर जो क्रियाएँ अहिंसक दिखाई देती हो किन्तु अंतगोगत्वा उससे जीवहिंसा या जीवों की पीड़ा होती हो वैसी १० क्रियाओं का त्याग करना । और अपने दुष्कृत की क्षमापना । इसके द्वारा जीवरक्षा के प्रति जागरुकता बढ़ती है ।
टीका ग्रन्थों में तो इरियावहिया सूत्र की विवेचना करते हुए जीवहिंसा की सम्भावना के १८२४१२० प्रकार किए है। जो इस प्रकार है । जीवों के ५६३ भेद जीवविचार आदि ग्रन्थों में बताए है। उनकी विराधना उक्त दस प्रकार से होती है। उसका कारण राग और द्वेष द्वारा तीन करण से करना, कराना, अनुमोदन करना, तीन योग के द्वारा (मन, वचन, काया के द्वारा) तीनों काल में (भूत, वर्तमान और भविष्य में) अरिहन्त, सिद्ध, साधु, देव, गुरु , और आत्मा ये छह की साक्षी से गुणन करने पर क्रमशः ५६३४१०४२४३४३४३४६=१८२४१२० भेद होते है । इस प्रकार अहिंसा के भाव को प्रगट करने हेतु और हिंसा के भावों का हास करने के लिए सूक्ष्मातिसूक्ष्म वर्णन किया गया है ।
आवश्यक सूत्र के अन्तर्गत प्रस्तुत सूत्र नमस्कार महामन्त्र के बाद सर्वाधिक प्रचलित सूत्र है। कोई भी धार्मिक क्रिया करने से पूर्व प्रस्तुत सूत्र का पाठ आवश्यक माना गया है। आज श्वेताम्बर परम्परा में नमस्कार मन्त्र के बाद प्रस्तुत सूत्र रटाया जाता है और उसके अर्थ का विवेचन समझाया जाता है। जिससे प्रत्येक आत्मार्थी साधक एवं गृहस्थ के मन में अहिंसा के संस्कार पनपने लगते हैं ।
जैन दर्शन में जीवहिंसा के विषय में विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। शास्त्रीय ग्रन्थों में द्रव्यहिंसा और भावहिंसा का विधान है। उसी द्रव्यहिंसा का स्पष्ट स्वरूप हमें प्रस्तुत सूत्र में प्राप्त होता है। केवल प्राण व्ययरोपण हि हिंसा नहीं है किन्तु पीड़ा पहुँचाना, दुःख पहुँचाना भी हिंसा है। ऐसी क्रिया के द्वारा जीवों का वध होता है। प्रस्तुत सूत्र में विशेष रूप से १० क्रियाओं का
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