SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बीसवीं शताब्दी की जैन संस्कृत रचनाएँ, उनका वैशिष्ट्य और प्रदेय ३१३ आचार्य विद्यासागर महाराज का रचना संसार आध्यात्मिकता, दार्शनिक चिंतन परब्रह्म परमात्म पर आधारित है । लाक्षणिक प्रयोगों में गूढार्थ है । जहाँ एक ओर साधारण मनुष्य की बुद्धि से परे "भावना शतकम्" ग्रन्थों को "कोशं पश्यन् पदे-पदे" की सहायता से ही प्रबुद्ध व्यक्ति समझ सकता है वहीं दूसरी ओर "सुनीतिशतकम्" जैसे ग्रन्थों की प्रतिपाद्य शैली सरल है । "मुक्ति मार्ग" की सार्थकता समझायी गई है । चित्रालंकारों में मुरजबंध को अपनाया है । चरित्रशुद्धि, आत्मोत्थान का सम्यक् निदर्शन पदे-पदे किया गया है । आचार्य कुन्थुसागर की रचनाओं में नैतिक उत्थान, जन जागृति और बौद्धिक-विकास के साथ ही सामाचार की विकरालता से मानव मात्र को अवगत कराते हुए इससे दूर रहने का उपदेश दिया गया है । इनके ग्रन्थों में जीवन के आदर्श सिद्धान्तों एवं मोक्ष के रहस्य को समझाया गया है । शांति सुधा-सिन्धु, श्रावकधर्मप्रदीप, सुवर्णसूत्रम् आदि ग्रन्थों में विश्व शांति की व्याख्या की गई है और स्पष्ट किया गया है कि 'विश्वशांति ही अतीत, वर्तमान एवं भविष्य विषयक सभी समस्याओं का समाधान खोजने में सूक्ष्म है । आचार्य श्री के काव्यों में कर्त्तव्य-अकर्तव्य, सत्संगति, समाजसुधार, जैनसंस्कृति और जैनधर्म का बीसवीं शताब्दी में महत्त्व आदि का सम्यक् निदर्शन है । समस्या प्रधान विश्व संस्कृति के उत्थान में आचार्य कुन्थुसागर जी के ग्रन्थों का अध्ययन मानव मूल्यों के रक्षार्थ उपयोगी है । पूज्य आर्यिका सुपार्श्वमती माता जी, आर्यिका ज्ञानमती माता जी, आर्यिका विशुद्धमती माता जी, आर्यिका जिनमती माता जी प्रभृति साध्वियों की रचनाओं में भी उपयोगी सिद्धांतों की गई समीक्षा हैं। डॉ० पन्नालाल साहित्याचार्य जी की रचनाओं का प्रतिपाद्य विषय सम्यक्-रत्नत्रय है । जैनदर्शन के आधारभूत एवं मोक्षमार्ग की प्रतिपादक इनकी रचनाएँ दार्शनिक चिंतन की प्रतिनिधि हैं । इनमें भावपक्ष के साथ-साथ कलापक्ष की प्रधानता समान रूप से निदर्शित हैं । इनके ग्रन्थों की रचना शैली जहाँ एक ओर वाल्मीकि, कालिदास, और अश्वघोष का अनुसरण करती है वहीं दूसरी ओर श्री हर्ष, माघ, भारवि से भी प्रभावित प्रतीत होती है । संस्कृत साहित्य की श्री वृद्धि करने के साथ ही जैन-दर्शन के प्रचार प्रसार की दिशा में पं० जी का योगदान स्मरणीय है धर्मकर्म, आचार-विचार, राष्ट्रप्रेम आदि की शिक्षाओं से ओत-प्रोत पंडित जी की रचनाएँ आचारसंहिताएँ ही हैं । मानवीय भावों की सुकुमार अभिव्यक्ति करने के लिए विख्यात पं० मूलचन्द्र जी शास्त्री का साहित्य प्राचीन भारतीय संस्कृति की भव्यता को प्रतिबिम्बित करता है-मेघदूत की शैली पर आधारित "वचनदूतम्" काव्य में नायिका की प्रणय-भावना एवं निराशा को आध्यात्मिकता की ज्योति किरण से आलोकित किया है । शास्त्री जी के ग्रन्थों में जीवनादर्शों की सजीव अभिव्यक्ति हुई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy