________________
३१२
Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
का प्रयास करता है । इसलिए कालिदास आदि का रचना-तंत्र वृत्ताकार है । पर जैन संस्कृत कवियों का रचनातंत्र हाथीदांत के नुकीले शंकु के समान समसृण और ठोस होता है । चरित्र, संवेदन और घटनाएँ वृत्त के रूप में संगठित होकर भी सूची रूप को धारण कर लेती हैं तथा रसानुभूति कराती हुई तीर की तरह पाठक को अंतिम लक्ष्य पर पहुँचा देती हैं ।
१४. जैन काव्यों में इन्द्रियों के विषयों की सत्ता रहने पर भी आध्यात्मिक अनुभव की संभावनाएँ अधिकाधिक रूप में वर्तमान रहती हैं । इन्द्रियों के माध्यम से सांसारिक रूपों की अभिज्ञता के साथ काव्य प्रक्रिया द्वारा मोक्ष तत्त्व की अनुभूति भी विश्लेषित की जाती है । भौतिक ऐश्वर्य, सौन्दर्य परक अभिरूचियाँ शिष्ट एवं परिष्कृत संस्कृति के विश्लेषण के साथ आत्मोत्थान की भूमिकाएँ भी वर्णित रहती हैं । ब. बीसवीं शताब्दी के संस्कृत जैन काव्यों का प्रदेय :
बीसवीं शताब्दी में संस्कृत साहित्य की श्रीवृद्धि करने में जैन-विषयों पर प्रणीत साहित्य का भी विशिष्ट योगदान है । जैन विषयों पर संस्कृत में काव्य रचनाएँ करने वाले बीसवीं शताब्दी के रचनाकारों ने काव्य की प्राय: सभी विद्याओं को अपनी लेखनी से समृद्ध बनाया है । संस्कृत जैन काव्यों के अन्तर्गत-महाकाव्य, खण्डकाव्य, गीतिकाव्य, शतककाव्य, दूतकाव्य, चम्पूकाव्य, स्तोत्रकाव्य, श्रावकाचार तथा नीतिविषयक काव्य ग्रन्थों के साथ ही साथ पूजाव्रतोद्यापन काव्य और दार्शनिक काव्य रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं । इन सुविधाओं के अतिरिक्त स्फुट रचनाओं के माध्यम से भी मनीषियों ने अपनी प्रतिभा का प्रकाशन मुक्तक शैली में किया है । इस शती के रचनाकारों की लेखनी पर बीसवीं शताब्दी की हीयमान प्रवृत्तियों का कोई भी प्रभाव परिलक्षित नहीं होता है-सम-सामयिक समस्याओं के दुष्चक्र में साहित्यकार की लेखनी नहीं उलझी है, प्रत्युत कवियों की रचनाधर्मिता, जीवन के उच्चादर्शों और मूल्यों पर आधारित है । जैन-परम्परा और जैनेतर परम्परा में जन्मे रचनाकारों ने समान रूप से जैन काव्य रचना के प्रमुख आधार द्वादशांग वाणी को आत्मसात् करके संस्कृत में काव्यों का प्रणयन किया है । विवेच्य शताब्दी के जैन काव्यों की रचनाधर्मिता और रचनाकारों के आश्रम-पार्थक्य को रेखांकित करते हुए विवेचन किया है । परन्तु प्रस्तुतशताब्दी में जैन साधु-साध्वियों और जैन गृहस्थ मनीषियों के साहित्य पर समान रूप से अध्यात्म, भारतीय संस्कृति, दार्शनिक चिंतन, न्याय, सदाचार, विश्वशांति, नैतिकता और कैवल्य (मोक्ष) का प्रभाव अंकित है ।
बीसवीं शताब्दी के अग्रगण्य महात्मा आचार्य श्री ज्ञानसागर जी मुनि-महाराज के काव्यों में मानवता, वर्णव्यवस्था, स्वावलम्बन, पुनर्जन्म आदि भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों का समग्रतया उद्घाटन हआ है । सामाजिक बुराइयों को दर करने के लिए आत्मचिंतन का आश्रय लेना उचित है । "श्री समुद्रदत्त" का नायक सत्यप्रियता के कारण प्रख्यात हुआ । "दयोदयचम्पू" में एक हिंसक के हृदय परिवर्तन की कहानी है । "जयोदय" का एक नायक राजा होकर भी अंत में ब्रह्मचर्य व्रत धारण करता है । "पीरोदय" और "सुदर्शनोदय" आदि ग्रन्थ रत्नत्रय की सिद्धि का मार्ग प्रशस्त करते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org