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________________ बीसवीं शताब्दी की जैन संस्कृत रचनाएँ, उनका वैशिष्ट्य और प्रदेय ३०९ ४. पद्यबंध ५. तालवृन्तबन्ध ६. कलशबन्ध भाषाशैली : बीसवीं सदी के जैन संस्कृत काव्यों में कोमलकांतपदावली युक्त साहित्यिक-प्रांजल भाषा प्रयुक्त हुई है । भाषा में आलंकारिकता भी है । संस्कृत के साथ उर्दू, फारसी और हिन्दी के शब्द रूपों का भी कहीं-कहीं रचनाकारों ने प्रयोग किया है । शैली की दृष्टि से वैदर्भी रीति का प्रमुख रूप से प्रयोग हुआ है । ओज, प्रसाद और माधुर्य गुणों का रचनाकारों ने प्रयोग किया है । कोई-कोई रचनाकार की तुकान्त रचना करने की वृत्ति भी सामने आई है । आचार्य विद्यासागर जी की रचनाएँ सभी प्रकार के काव्य गुणों से समलंकृत हैं । इस शताब्दी की रचनाओं पर कालिदास, भारवि, माघ, भवभूति, श्रीहर्ष की प्रवृत्तियों का कहीं-कहीं निदर्शन होता है । शैली विज्ञान की दृष्टि से इनमें दृष्टांत, संवाद, व्याख्यात्मक, विवेचनात्मक और समास शैली यथा--प्रसंग प्राप्त होती है । बीसवीं शताब्दी के संस्कृत जैन काव्यों का वैशिष्ट्य, प्रदेय अ. बीसौं शताब्दी के संस्कृत जैन काव्यों का वैशिष्ट्य विवेच्य शोध विषय का समग्रतया अनुशीलन करने पर शोधकर्ता को बीसवीं शताब्दी में रचित जैन काव्यों में रचनातंत्र, कथानक, नायक चयन, कवि कल्पना में अवतरित तत्त्वों, भावपक्ष, कलापक्ष आदि के आधार पर निम्नलिखित विशेषताएँ प्राप्त हुई है : १. संस्कृत जैन काव्यों की आधारशिला द्वादशांग वाणी है । इस वाणी में आत्मविकास द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है । रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की साधना द्वारा मानव मात्र चरम सुख को प्राप्त कर सकता है। संस्कृत भाषा में रचित प्रत्येक जैन काव्य उक्त संदेश को ही पुष्पों की सुगन्ध की भाँति विकीर्ण करता है । २. जैन संस्कृत काव्य स्मृति अनुमोदित वर्णाश्रम धर्म के पोषक नहीं है। इनमें जातिवाद के प्रति क्रांति निदर्शित है। इनमें आश्रम व्यवस्था भी मान्य नहीं है । समाज-श्रावक और मुनि इन दो वर्गों में विभक्त है चतुर्विध संघ-मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका को ही समाज माना गया है । इस समाज का विकास श्रावक और मुनि के पारस्परिक सहयोग से होता है। तप, त्याग, संयम एवं अहिंसा की साधना के द्वारा मानव मात्र समान रूप से आत्मोत्थान करने का अधिकारी है । आत्मोत्थान के लिए किसी परोक्ष शक्ति की सहायता अपेक्षित नहीं है । अपने पुरुषार्थ के द्वारा कोई भी व्यक्ति अपना सर्वाङ्गीण विकास कर सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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