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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
कषायजय भावना
- डॉ० नेमीचन्द्र जैन बीसवीं शताब्दी में रचित जैन संस्कृत काव्यों की विविध विद्याएँ पर्याप्त संख्या में समृद्ध हुई हैं । उक्त अनुच्छेदों में कतिपय प्रमुख कृतियों के नामों का उल्लेख मात्र किया गया है । यदि संख्या की दृष्टि से विचार करें तो- मौलिक रचनाओं की ही संख्या निम्न प्रकार प्राप्त होती
महाकाव्यम् काव्यग्रन्थ
ॐ 39
दूतकाव्य स्तोत्र / स्तुति
- १०० शतककाव्य चम्पूकाव्य श्रावकाचार नीतिविषयक काव्य __- १२ पूजा व्रतोद्यापन
- ३० १०. दार्शनिक रचनाएँ ११. स्फुट रचनाएँ
इनके अतिरिक्त लगभग सो टीकाग्रन्थ और अनेक अन्य कृतियाँ इस शताब्दी में संस्कृत में लिखी गई ।
. इस शताब्दी में विरचित जैन संस्कृत काव्यों में साहित्य शास्त्रीय और शैलीगत विशेषताएँ समृद्ध रूप में अभिव्यंजित हुई हैं । इनमें रस, छन्द, अलंकार, गुण, ध्वनि आदि तत्त्व यथास्थान व्यवस्थित रूप से प्रयुक्त दृष्टिगोचर होते हैं । उदाहरणार्थ-आचार्य ज्ञानसागर के महाकाव्यों में मुख्य रस शांत है किन्तु सहयोगी रस के रूप में श्रृंगार, वीर, हास्य, वात्सल्य आदि का भी यथास्थान प्रयोग हुआ है । आचार्य ज्ञानसागर के महाकाव्यों में छन्दोंवैविध्य देखते ही बनता है । उन्होंने १७ प्रचलित एवं २९ अप्रचलित इस प्रकार कुल ४६ प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है । उपजाति छन्द कवि का सर्वाधिक प्रिय छन्द है । इनके काव्यों में आचार्य श्री की संगीतप्रियता
और आलंकारिकच्छटा का परिपूर्ण निदर्शन हुआ है । ज्ञानसागर जी को अनुप्रास, यमक, उपमा, उत्प्रेक्षा और अपहनुति अलंकार से विशेष लगाव प्रतीत होता है । इनके काव्यों में ६ प्रकार के चित्रबन्धों का भी प्रयोग हुआ है :
१. चक्रबन्ध २. गोमूत्रिकाबंध ३. यानबन्ध
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