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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
की विधिपूर्वक पूजा की और वापिस रैवताचल आया । यहाँ आकर नेमीश की विधिपूर्वक पूजा की । बाद में अंबिका की कृपा से तीन सो वर्ष राज्य किया है ऐसा सोचकर राज्य अपने पुत्र को सोंप दिया और दीक्षा ले ली । यह सब बातें जांगल नाम के शिष्य ने जटिल मुनि को बताकर कहा कि यह सब मैंने प्रत्यक्ष देखा है और यह इसी तीर्थ की महिमा है । इस तीर्थ का सेवन करनेसे पापी भी अपने अपने कर्मों को पर्ण करता है। यहाँ भ्रमण करते हए पक्षी इस तीर्थ की परछाई का स्पर्श होने से दुर्गति को प्राप्त नहीं होते तो फिर इस तीर्थ के सहवास की तो बात ही क्या ? इस प्रकार जांगल शिष्य और जटिल मुनि के बीच हुए वार्तालाप को सुनकर सभी तापस आनन्दित हुए । भीमसेन और परदेशी भी इस संवाद को सुन रैवत की ओर चल दिए । रैवताचल से दो रत्नों को लेकर भीमसेन निकल गया । एक रन राजकुल में दिया और एक रत्न अपने पास रखा । नाव में बैठकर जब जा रहे थे तब परदेशी के रत्न के साथ अपने रत्न की तुलना करने लगा, जिससे भीमसेन का रत्न पानी में गिर गया । रत्न के गिर जाने से भीमसेन मूर्छित हो गया और हे देव ! यह क्या किया ? इस तरह चिल्लाकर विलाप करने लगा । उस समय परदेशी ने कहा-धैर्य रखो और शोक मत करो, मेरे साथ में रहने से आप को बहूत से रत्न मिलेंगे । अभी यह मेरा रत्न लेलो । मित्र के इस वचन से उसको सान्त्वना मिली । दोनों लोग किनारे पर पहुँचे । वहाँ से आगे दोनों रास्ते से गुजर रहे थे तब चोरों ने उन्हें लूट लिया और आगे चलते उनको एक मुनि मिले । दोनों ने मुनि को नमस्कार किया । मुनि ने भीमसेन को विषाद न करने को कहा । भीमसेन उससे पूर्व अठारह दिन मुनि को पीडित कर चुका था जिसका यह फल भोग रहा है । अशुभ समय गुजर जाएगा और तेरा कल्याण होगा, तू विषाद मत कर । इस वचन को सुन भीमसेन परदेशी के साथ मुनि को नमस्कार कर रैवताचल की ओर चल दिया । रैवत पर्वत पर पहुँचकर भीमसेन ने अमात्यों के साथ आए हुए संघ को देखा । भीमसेन को अमात्यों ने पहचान लिया । और राजा को सूचित किया । राजा ने भी भीमसेन को देख सहर्ष आलिंगन किया । अपने भाई के आग्रह करने पर भीमसेन ने राज्य शासन स्वीकार किया । घर पर जाकर कुलदेवता को नमस्कार किया । भाइयों के साथ भोजन किया और बाद में सभा में गया । वहाँ अपने छोटे भाइयों को राज्य शासन सौंपकर अपने छोटे से परिवार को साथ में लेकर रैवत की ओर चल दिया । शकुंजय जाकर जिन की पूजा की, वहाँ से रैवताचल आया-कपूर, केसर, चंदन पुष्पादि से नेमीश की पूजा की । बाद में दीक्षा लेकर भीमसेन ने अत्यन्त तपश्चर्या की । आठ मद से युक्त होकर मुक्ति को प्राप्त हुआ । ज्ञानचंद्र मुनि के मुख से इस पर्वत के माहात्म्य को सुनकर विद्वान् लोग भी मोक्ष को प्राप्त हुए । महापापी और महारोग से पीडित भी इस पर्वत का सेवन-पूजन करने से सुखी होते हैं ।
जंबूद्दीपेऽत्र भरते श्रावस्त्यस्ति पुरीवरा । तत्रोऽभूद्वज्रसेनाख्यो भूपतिर्भूरिभाग्यभृत् ॥१॥ जिनार्चनपरो नित्यं जनतारंजनव्रतः । सर्वै गुणैरतिश्रेष्ठो ज्येष्ठोऽभूत् सव(4) राजसु ॥२॥
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