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"श्लिष्टकाव्य" साहित्य के प्रति जैन विद्वानों का योगदान अनेकार्थक योजना की है । अर्थात् उक्त पद्य के श्लेष के माध्यम से अनेक अर्थ किये हैं ।
रत्नशेखर सूरि ने "परवाया शब्द" के छप्पन अर्थ किये हैं । ये सभी अर्थ संगतियुक्त
गुहालिका (गोधूलिका) शब्द के भावप्रभ सूरि ने इकतालीस (४१) अर्थ किये हैं । खरतरगच्छीय उपाध्याय गुणविजय ने "सवत्थ" शब्द के एकसौ सत्रह अर्थ किये हैं ।
बारहवीं शताब्दी में कविराज ने "राघवपाण्डवीयम्" की रचना की है । यह रामायण और महाभारत की कथाओं से निबद्ध श्लेषकाव्य है। इसको द्विसंधानकाव्य भी कहते हैं। कवि की प्रतिभा इतनी है कि श्लेषगुम्फन में पीछे नहीं होते हैं । उदाहरणार्थ दो श्लोक प्रस्तुत करता
विशिष्टगीता धृतवंशदीप्तिः
श्रुतिप्रतिष्ठा पुरुषार्थसूतिः । सन्मार्गविस्तारवतीसुजातिः
यं भारतश्रीर्भजतेऽभिरामा ॥ १-३१ ( राघवपाण्डवीयम्) यहाँ पर कवि ने अपने प्रतिभा कौशल द्वारा "यं अभिरामा भारतश्री: भजते" (जिसमें ऐसी भारतश्री सेवा करती है") वाक्य के छ: (६) अर्थ प्रस्तुत किये हैं । व्यासपक्ष में, महाभारत पक्ष में भारतभूमि पक्ष में, दीप्ति पक्ष में, सुरत पक्ष में और लक्ष्मी पक्ष में । इनकी व्याख्या इस प्रकार है :१. व्यासपक्ष में विशिष्टगीता
विशिष्टगीता उपनिषत् विशेषो यत्र धृतवंशदीप्ति:
वंशस्य वंशानुचरितस्य दीप्तिर्यत्र श्रुतिप्रतिष्ठा
श्रुतौ वेदे प्रतिष्ठा ख्यातिर्यस्याः सा पुरुषार्थसूति:
पुरुषार्थस्य धर्मादिचतुष्टयस्य सूतिः व्युत्पत्तिः यत्र सा सन्मार्गविस्तारवती- सन् श्रेष्ठः यः मार्गः तस्य विस्तारो यत्र तादृशी । सुजाति:
शोभना जातिः ब्राह्मणत्वादियंत्र, शोभनानां पुरुषाणां जन्म । अभिरामा
मनोहरा । २. महाभारतपक्ष में विशिष्टगीता
विशिष्टेन सज्जनेन गीता शब्दिता धृतवंशदीप्तिः
धृता वंशस्य निजान्ववायस्य दीप्तिः यया सा तथोक्त । श्रुतिप्रतिष्ठा
श्रुतौ वेदे प्रतिष्ठा यस्याः, हिरण्यवर्ण इत्यादि ऋग्वेदे तथोक्तिः। पुरुषार्थसूति:
पुरुषार्थस्य पुरुषप्रयोजनस्य वा सूतिः उत्पत्तिः यस्याः या पौरुषजनक
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