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"श्लिष्टकाव्य" साहित्य के प्रति जैन विद्वानों का योगदान
गोपराजु रामा
संस्कृत साहित्य में 'श्लेष' का प्रयोग प्राचीन काल से ही मिलता है। एक शब्द से दो अर्थों के प्रतिपादन की प्रक्रिया वैदिक काल से ही चली आ रही है । वैदिक साहित्य में सर्वप्रथम "इन्द्रशत्रु" शब्द का उल्लेख प्राप्त होता है। सामान्यतः कहीं स्वर के बदलने एवं कहीं लिंग के बदलने से अर्थ बदल जाता है। आदि स्वर के उदात्त होने पर "इन्द्र है शत्रु जिसका" एवं अन्तिम स्वर के उदात्त होने पर "इन्द्र का शत्रु" इस अर्थ का ज्ञान होता है । इस प्रकार एक शब्द से दो अर्थों के प्रतिपादन की प्रक्रिया की उत्पत्ति हुई । परवर्तीकाल में "काव्यप्रकाश" में श्लेष शब्द का निर्वचन किया गया है ।
वाच्यभेदेन भिन्ना यत्
युगपत् भाषणस्पृशः । श्लिष्यन्ति शब्दा श्लेषोऽसा
वक्षरादिभिरष्टधा ॥ (काव्यप्रकाश, ९-८४) इस श्लेषालंकार के माध्यम से सुबन्धु एवं बाणभट्ट ने अपनी कृतियों का प्रणयन किया । इन कृतियों की चर्चा करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता है ।
उसके बाद नवमी शताब्दी में "भट्टरूरि" ने "अष्टोत्तर शतार्थीगाथा" की रचना करके उसके एकसौ आठ (१०८) अर्थों को बतानेवाली वृत्ति स्वयमेव लिखी । गाथा इस प्रकार है :
तत्रीसी अली मेलावा केहा __ण उत्तावली पिय-मिदं सिणेहा । वरहिहिं माणुसु जं मरहत सुकवण निहोरा
कीर्तिपविवडीजणुं जाणहं दोरा ॥ ग्यारहवीं शताब्दी में श्रीपाल ने शतार्थीपद्य का निर्माण किया' । ये गुजरात के राजा सिद्धराज के बालसखा एवं कविचक्रवर्ती के रूप में प्रसिद्ध थे । इनके द्वारा निर्मित शतार्थी (सौ अर्थवाला) पद्य निम्नवत् है :
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