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________________ सुदर्शनोदय महाकाव्य की सूक्तियाँ और उनकी लोकधर्मिता द्विजिह्वतातीतगुणोप्यहीनः किलानकोऽप्येष पुनः प्रवीणः । विचारवानप्यविरुद्धवृत्तिः मदोज्झितो दानमयप्रवृत्तिः ॥ ___इस काव्य के नायक सुदर्शन की माता जिनमति भी वृषभदास की ही भाँति सर्वगुणसम्पन्ना पतिव्रता सुन्दरी थीं, जिनकी प्रशंसा ज्ञानसागरजी ने १७ श्लोकों में किया है । यथा कापीव वापी सरसा सुवृत्ता मुद्रेव शाटीव गुणैकसत्ता । विधोः कला वा तिथिसत्कृतीद्धाऽलङ्कारपूर्णा कवितेव सिद्धा || संस्कृत की एक उक्ति है - यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनः । अर्थात् श्रेष्ठजन जो आचरण करते हैं, सामान्यजन उसीका अनुकरण करते हैं । इसीलिए कवि जिस आदर्श की कल्पना । स्थापना अपने काव्य में करते हैं, वह लोकजीवन के लिए अनुकरणीय बन जाता है । यही कारण है कि समर्थ प्रातिभ कवि कभी किसी अधम चरित्र को काव्य का विषय नहीं बनाता । कवि प्रवर ज्ञानासागर जी ने भी सेठ वृषभदास, जिनमति तथा सुदर्शन को जो अपनी लेखनी का आदर्श बनाया, वह वस्तुतः प्रशंसनीय है । सुदर्शन तो यों भी कुलीन, सुसंस्कृत व संयतेन्द्रिय तथा एकपत्नीव्रती थे । इसीलिए वे जिनालय में सागरदत्त की पुत्री मनोरमा को देखकर मुग्ध हो गये । यथा - रतिराहित्यमद्यासीत् कामरूपे सुदर्शने । ततो मनोरमाऽप्यासीलतेव तरुणोज्झिता ॥ किन्तु इनका यह स्नेह जन्मान्तरीय संस्कारों के कारण था । इसीलिए सुदर्शन की स्थितियाँ जानकर मुनिवर ने कहा प्रायः प्राग्भवभाविन्यौ प्रीत्यप्रीती च देहिनाम् ।। अर्थात् सुदर्शन ! जीवों के परस्पर प्रीत्यप्रीति प्रायः पूर्व जन्म के संस्कारवाली होती हैं । सन्तमहिमा : ज्ञानसागरजी ने सन्तमहिमा को स्वीकार करते हुए कहा है कि सन्तों के संयोग से प्राणियों को अभीष्ट की प्राप्ति हो जाती है - वाविन्दुरेति खलु शुक्तिषु मौक्तिकत्वं लोहोऽथपार्श्वदृषदाञ्चति हेमसत्त्वम् । सत्सम्प्रयोगवशतोऽङ्गवतां महत्त्वं सम्पद्यते सपदि तद्वदभीष्टकृत्वम् ॥" अर्थात् जैसे जलबिन्दु सीप में जाकर मोती बन जाता है और पारस पाषाण का योग पाकर लोहा सोना बन जाता है, वैसे ही सन्तों के संयोग से प्राणियों को अभीष्ट फलदायी महान् पद मिल जाता है । सुदर्शन का एक पत्नीव्रतत्व :'क: कामबाणादतिवर्तितः स्यात्' इस संसार में काम के बाणों से भला कौन अछूता रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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