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सुदर्शनोदय महाकाव्य की सूक्तियाँ और उनकी लोकधर्मिता
जयप्रकाश द्विवेदी
सुदर्शनोदय दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के तत्त्वज्ञानी विद्वान्, कवि, साधक एवं परम सदाचारी महात्मा श्री ज्ञानसागरजी महाराज के द्वारा प्रणीत नव सर्गों में विभक्त लगभग ५५५ श्लोकों वाला एक प्रतिष्ठित संस्कृत महाकाव्य है, जिसके अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि दार्शनिक मुनिवर्य महाकवि ज्ञानसागर जी का पूर्व नाम पं० भूरामलजी था । उनके पिता का नाम सेट चतुर्भुज व माता का नाम घृतवरी था । समूचे महाकाव्य में सेठ वृषभदास और उनकी पत्नी जिनमति के पुत्र सुदर्शन का चरित्रांकन किया गया है । इसलिए सुदर्शन को इस ग्रन्थ का नायक व मनोरमा को नायिका स्वीकार किया गया है ।
सामान्यतया इस काव्य में सुदर्शन की सुंदरता, उनके पैतृक संस्कार, युवावस्था की स्वाभाविकता, ज्ञान, तपश्चर्या, मनोरमा के साथ उनके प्रेम और तप: सिद्धि को ही वर्णन का लक्ष्य बनाया गया है, किन्तु इसके साथ-साथ लोकजीवन का जो रूप काव्य में मुखरित हुआ है, वह अनेकविधरूप विविध वर्णन प्रसंगों में देखा जा सकता है । उदाहरणार्थ - तत्कालीन राजकुलाचार, राजा की न्यायप्रियता, युवतियों का युवावस्थाजन्य काम (वासना) का अखण्ड प्रवाह, दासियों की बुद्धिमत्ता और आचारशीलता इत्यादि । इस ग्रन्थ में एक ओर जहाँ वैश्य ऋषभदास के कुल की सच्चरित्रता का अतिशयोक्तिपूर्ण अंकन किया गया दिखायी देता है, वहीं दूसरी ओर राजकुल का घृणास्पद आचार भी वर्णित है ।
इस महाकाव्य के विषय प्रतिपादन को गति देने में जो भूमिका इसमें प्रयुक्त सूक्तियों की है, वह अन्य किसी की नहीं है । सूक्तियों की अर्थवत्ता व उपमानों के प्रयोग जीवन्त लोकजीवन से सर्वतोभावेन सम्बद्ध हैं I
बभौ समुद्रोऽप्यजडाशयश्च दोषातिगः किन्तु कलाधरच लतेव मृद्धी मृदुपल्लवा वा कादम्बिनी पीनपयोधरा वा ॥
इन पंक्तियों में सूर्य, चंद्र, सागर, लता पल्लवादि का प्रयोग है ।
समूचे ग्रन्थ में जहाँ सौन्दर्य, दानशीलता, विनम्रता, संस्कार और सद्विचार सदृश आदर्शों का चित्रण है, वहीं देश में तत्कालीन वेश्यावृत्ति, स्त्रीचरित, छल, प्रपञ्च, मिथ्याभाषण और कपटपूर्ण व्यवहार जैसे चित्र भी देखे जा सकते हैं। वृषभदास का चरित्र देखें :
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