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________________ निर्भयभीमव्यायोग का साहित्यिक अध्ययन २४१ विनय को अस्वीकार कर नायक की कर्तव्य के प्रति निष्ठा दिखाकर कर्तव्य की प्रेम पर विजय दिखाई गई है । यही है भारतीय संस्कृति का आदर्श, जिसे कवि ने भीम के बहाने देश के नवयुवकों को स्मरण कराने का यत्न किया है । नाटक में घोर द्वन्द्व-युद्ध वर्णित है, यह युद्ध किसी भी प्रकार से स्त्रीनिमित्तक नहीं है अपितु लोकरक्षण एवं परोपकार की उदात्त भावना से प्रेरित इसका नेता भीम प्रख्यात एवं धीरोद्धत है जो अपनी वीरता एवं उदारता के कारण दुःसाध्य कार्य को सम्पन्न करता है । रूपक में दस पुरुष पात्रों तथा तीन स्त्रीपात्रों के होने से पुरुषों का आधिक्य और स्त्रीपात्रों की न्यूनता स्पष्ट ही है । नाटक वीररस प्रधान है । रौद्र, बीभत्स, भयानक आदि दीप्त रसों का भी सञ्चार हुआ है । वीररस के अनुकूल ही सात्वती, आरभटी तथा भारती वृत्तियाँ विद्यमान हैं । कैशिकी वृत्ति का पूर्णतया अभाव है । स्त्रीपात्र के रूप में द्रौपदी, वृद्धा तथा वधू उपस्थित होती हैं, लेकिन इनकी उपस्थिति श्रृंगार रस के विपरीत करुण रस की ही निष्पत्ति करती है । ___ भाषा सरल, सरस एवं प्रवाहमयी है । पात्र नाट्य नियमानुकूल भाषा का प्रयोग करते हैं । संवाद सरल, संक्षिप्त तथा पात्रों की मनःस्थिति के परिचायक हैं । संक्षेप में प्रस्तुत रूपक में नाट्यशास्त्र द्वारा प्रतिपादित व्यायोग के लक्षणों का सफलतापूर्वक निर्वाह किया गया है । पादटीप : १. संस्कृत साहित्य का इतिहास-बलदेव उपाध्याय, शारदा मन्दिर, वाराणसी, १९६८, १९७३, पृ० ५७३ । २. समय-१०९३ ई० से० ११४३ तक- संस्कृत साहित्य का इतिहास-बलदेव उपाध्याय, पृ० ५७४ । ३. संस्कृत साहित्य का इतिहास-बलदेव उपाध्याय, पृ० ५७४ । ४. समय ११४३ ई० से ११७३ ई० तक संस्कृत साहित्य का इतिहास-बलदेव पृ० ५७४ । ५. मध्यकालीन संस्कृत नाटक-रामजी उपाध्याय, संस्कृत परिषद्, सागर विश्वविद्यालय, सागर, १९७४, पृ० १५७ । ६. प्रबन्धशतकर्तुर्महाकवेः रामचन्द्रस्य । -निर्भयभीमव्यायोग-रामचन्द्रसरि, धर्माभ्युदययन्त्रालय, वाराणसी, वीरसंवत्-२४३७, पृ० १ । ७. निर्भयभीमव्यायोग की प्रस्तावना में नान्दी पाठ से कवि के जैनमतानुयायी होने का स्पष्ट निर्देश प्राप्त होता है । ८. हिन्दी नाट्यदर्पण-नगेन्द्र हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, पुनर्मुद्रण, १९९० भूमिका, पृ० १६-१७ । 8. The Mahābhārat-Vol-1-The Adiparvan-critically edited by Sukthankar v. s. Bhāndärker Oriental Research Institute, Poona, First Edition, 1933, 37274 883 À १५२ । १०. निर्भय, लो० १ । ११. निर्भय, पृ० १ । १२. देवि ! कि मामेवमभिदधासि ? न नाम समद्धफलकुसुमपल्लवाः प्रेतवनशाखिनो भवन्ति, यत्पुनरिमाः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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