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आचार्य रामचन्द्र सूरि और उनका कर्तृत्व
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यह ग्रन्थ भी गुणचन्द्र के साथ मिलकर लिखा गया है । शेष ग्रन्थों में नाटक, नाटिका और प्रकरण हैं जो रामचन्द्र के स्वयम् अपने लिखे गये हैं। इसके अतिरिक्त 'हैमबृहवृत्तिन्यास' को छोड़कर शेष ग्रन्थ लघु आकार के हैं और अलङ्कार विषयक अथवा जिनस्तव हैं ।
आचार्य रामचन्द्र जैन को 'कवि कटारमल्ल' की उपाधि एक बार सिद्धराज जयसिंह ने अपनी विद्वत्सभा में प्रश्न किया-'कथं ग्रीष्मे दिवसा गुरुतराः ?' उपस्थित विद्वानों ने यथामति उत्तर दिया । आचार्य रामचन्द्र का समाधान उस समय की सामन्ती परम्परा और उनकी कवित्व-प्रतिभा के सर्वथा अनुरूप तथा तर्कसङ्गत एवं प्रभावशाली था -
'देव ! श्रीगिरिदुर्गमल्ल ! भवतो दिग्जैत्रयात्रोत्सवे धाववीरतुरङ्गनिष्ठुरखुरक्षुण्णक्षमामण्डलात् । वातोद्धृतरजोमिलत्सुरसरित्सञ्जातपङ्कस्थली
दूर्वाचुम्बनचञ्चुरारविह्यास्तेनातिवृद्धं दिनम् ॥' इस श्लोक में राजा के प्रताप वर्णन के साथ ही कविकल्पनावैभव भी विलासित है । इसे सुनकर राजा समेत सारी सभा चमत्कृत हो गयी ।
इसी प्रकार सिद्धराज के कहने पर रामचन्द्र ने राजधानी अणहिलपुरपट्टन का तत्काल वर्णन किया :
'एतस्यास्य पुरस्य पौरवनिताचातुर्यतानिर्जिता मन्ये नाथ ! सरस्वती जडतया नीरं वहन्ती स्थिता । कीर्तिस्तम्भमिषोच्चदण्डरुचिरामुत्सृज्य वाहावली
तन्त्रीका गुरुसिद्धभूपतिसरस्तुम्बी निजां कच्छपीम् ॥' इस श्लोक में वर्णित राजा के यश और राजधानी के सारस्वत वैभव की वैदग्ध्यमयी प्रस्तुति से प्रसन्न होकर कविप्रतिभा से सुपरिचित सिद्धराज जयसिंह ने रामचन्द्र का सम्मान करते हुए उन्हें 'कविकटारमल्ल' की उपाधि से विभूषित किया ।
एक बार काशी के कवि पण्डित विश्वेश्वर अणहिलपट्टन गए और आचार्य हेमचन्द्र से मिलने पर उन्हें श्लोकार्ध द्वारा आशीर्वाद दिया—'पातु वो हेम ! गोपालः कम्बलं दण्डमुद्वहन् ।' उपस्थित रामचन्द्र ने विश्वेश्वर की धार्मिक चतुराई का उत्तर, जैन धर्म की उत्कृष्टता बताते हुए तत्काल ही श्लोकपूर्ति करके दे दिया 'षड्दर्शनपशुग्रामं चारयन् जैनगोचरे ॥' यह विवरण मेरुतुङ्गविरचित 'प्रबन्धचिन्तामणि' में दिया गया है। चरित्रसुन्दरगणिरचित 'कुमारपालचरित महाकाव्य' में भी इस घटना का उल्लेख है । यहाँ रामचन्द्र द्वारा कवि विश्वेश्वर द्वारा दी गयी समस्याओं की छन्दोबद्ध पूर्ति किए जाने पर उनकी प्रतिभा और वर्णनचातुरी की प्रशंसा कवि विश्वेश्वर द्वारा किए जाने का उल्लेख भी मिलता है :
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