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________________ आचार्य रामचन्द्र सूरि और उनका कर्तृत्व की आदरसेवा और उनके संरक्षण में कभी भी साम्प्रदायिक भेदभाव न दिया । भिन्न-भिन्न मतावलम्बी आचार्य और सुधी विद्वान् समानरूपं से राजसमादृत थे । गुजरात में प्राचीन काल से ही जैन धर्माचार्यों की समृद्ध परम्परा रही है । इन आचार्यों ने अपने शास्त्रीय ग्रन्थों के प्रणयन के साथ ही संस्कृत और प्राकृत साहित्य की भी अपूर्व सेवा की है। जैन आचार्यों और कवियों ने राज्याश्रय प्राप्त करके प्राकृत के साथ ही संस्कृत को भी अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया । आचार्य हेमचन्द्र का प्रथम परिचय ४६ वर्ष की आयु में ११३६ ई० में अणहिलपुरपट्टन के राजा सिद्धराज जयसिंह के साथ हुआ था । जयसिंह के आश्रय में सात वर्षों तक रहने के पश्चात् हेमचन्द्र तीस वर्ष तक राजा कुमारपाल के संरक्षण में रहे । सिद्धराज जयसिंह की एक जिज्ञासा के समाधान के अवसर पर आचार्य हेमचन्द्र ने अपने पट्टशिष्य रामचन्द्र को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था । इस प्रकार छियालीस वर्ष की आयु से निरन्तर सैंतीस वर्षों तक राज्याश्रय में रहने के पश्चात् तिरासी वर्ष की आयु में आचार्य हेमचन्द्र की अतिकरुण मृत्यु हुई । गुरु के निधन के पश्चात् उनके उत्तराधिकारी आचार्य रामचन्द्र सूरि राज्याश्रय के भागी हुए किन्तु उनके गुरु के प्रति राजा अजयपाल के प्रतिशोध के कारण रामचन्द्र को भी कोपभाजन बनना पड़ा । वे भी अनेक प्रकार की यन्त्रणायें सहते हुए दुःखद अन्त को प्राप्त हुए । २२९ आचार्य रामचन्द्र सूरि का निवासस्थान और स्थितिकाल सुनिश्चित है । अपने गुरु हेमचन्द्र के साथ रहने के कारण उनका भी वासस्थान 'अणहिलपुरपट्टन' था । सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल (तथा अजयपाल ) का समकालिक होने के कारण इनका स्थितिकाल भी निर्विवाद है । सिद्धराज जयसिंह का शासनकाल बारहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध था और तत्पश्चात् कुमारपाल ने ११६६ ई० तक शासन किया था । अतः आचार्य रामचन्द्र सूरि का स्थिति काल सुनिश्चितरूप से बारहवीं शताब्दी ई० था । जैसा कि इनके गुरु और इनके नाम के साथ लगी उपाधि से ही ज्ञात होता है कि ये जैन-मतावलम्बी आचार्य थे । नाट्यदर्पण का मङ्गलाचरण भी इस तथ्य को पुष्ट करता है : चतुर्वर्गफलां नित्यां जैनीं वाचमुपास्महे । रूपैर्द्वादशभिर्विश्वं यया न्याय्ये धृतं पथि ॥ Jain Education International प्राचीन काल से ही राजस्थान और गुजरात में जैनधर्म का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार था । आज भी इन दो प्रान्तों में जैनमतावलम्बियों की संख्या प्रचुर है । ये जैनमतावलम्बी प्रायः वणिक् कुल के हैं । आचार्य हेमचन्द्र का जन्म वणिक् कुल में हुआ था । अतः यह सम्भावना प्रबल है कि उनके शिष्य रामचन्द्र भी वणिक् रहे होंगे। जैन मतावलम्बी होते हुए भी रामचन्द्र ने संस्कृत साहित्य में जो रचनायें की हैं उनमें मुख्य कृतियाँ जैनेतर देवताओं से सम्बद्ध अथवा रामायणमहाभारत-कथाश्रित हैं । इससे अनुमान होता है कि मूलतः जैनमतावलम्बी कुल में उत्पन्न नहीं हुए थे । आचार्य हेमचन्द्र से दीक्षा लेने के पश्चात् ये जैनमतावलम्बी हुए । क्योंकि इनके संस्कार में राम - कृष्ण - पाण्डवादि सम्बद्ध रामायण- महाभारत की कथायें थीं और उनके अनुराग वश इन्होंने उनके आश्रय से साहित्यसर्जन की जैनमुनियों की स्तुति में इन्होंने लघु-स्तवों की रचना की है। I For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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