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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature अपनी स्वातन्त्र्यप्रियता का सङ्केत उन्होंने 'सत्यहरिश्चन्द्र' की प्रस्तावना में भी किया है :
'सूक्तयो रामचन्द्रस्य वसन्तः कलगीतयः ।।
स्वातन्त्र्यमिष्टयोगश्च पञ्चैते हर्षसृष्टयः ॥' इसी प्रकार उनकी कई रचनाओं में अनेकत्र स्वतन्त्रता के प्रति उनकी उत्कट अभिलाषा और परमप्रीति दृष्टिगोचर होती है :
'प्राप्य स्वातन्त्र्यलक्ष्मी मुदमथ वहतां शाश्वती यादवेन्द्रः ।' (यादवाभ्युदय) । 'प्राप्य स्वातन्त्र्यलक्ष्मीमनुभवतु मुदं शाश्वती भीमसेनः ।' (निर्भयभीमव्यायोग) । 'अजातगणनाः समाः परमतः स्वतन्त्रो भव ।' (नलविलास और सत्यहरिश्चन्द्र) । 'आसाद्य यशोलक्ष्मी परां स्वतन्त्रश्चिरं भूयाः ।' (कौमुदीमित्राणन्द) । 'स्वातन्त्र्यप्रसवां यदीञ्छत चिरं सर्वार्थसिद्धि हृदि ।' (द्रव्यालङ्कार के अन्त में) ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य रामचन्द्र जैन के अन्तःकरण में सदैव स्वतन्त्रता की भावना समुद्वेलित होती रहती थी । यह भावना किसी न किसी रूप में उनकी रचनाओं में व्यक्त है । कवि ने अपने रूपकों और अन्य कृतियों में पात्रादि के प्रति शुभाशंसा के रूप में जो 'स्वातन्त्र्यप्राप्ति' की सदिच्छा अनेकधा अभिव्यक्त की है, उसके पीछे उनके जीवन में परवशता की महती पीड़ा प्रतिबिम्बित होती है और लगता है कि कवि को अपने जीवन के सुदीर्घ काल तक पराधीनता का दुःसह दुःख भोगना पड़ा था । यद्यपि उनके जीवन की अवसानवेला अत्यन्त क्लेश मयी रही और उसका अन्त भी अतिशय क्रूर प्रतिशोधवश हुआ किन्तु आचार्य के जीवन के पूर्वभाग की कोई विशेष जानकारी न होने से उनकी स्वतन्त्रताप्राप्ति की कसक के मूल तक पहुँचने का कोई भी साधन नहीं है । यह तो सर्वविदित है कि वे आचार्य हेमचन्द्र के प्रिय और प्रमुख शिष्य थे किन्तु सम्भव है कि हेमचन्द्र की सेवा में आने से पूर्व उनका कौटुम्बिक परिवेश अभावी अथवा परवशता की दुःखद त्रासमयी यातनाओं से जूझता रहा हो और यहाँ गरु के सान्निध्य में आने पर भी उन्हें तरह-तरह के कठोर नियन्त्रणों से गुजरना पड़ा हो । कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्होंने इस स्थिति में अपने को भी मुरारि कवि के समान पाया हो और 'कवीन्द्रा निस्तन्द्राः कवि न हि मुरारिप्रभृतयः' उनका कथन 'गुरुकुलक्लिष्टो मुरारिः कविः' का अनुस्मरण हो । वस्तुस्थिति जो भी रही हो, यह तो निश्चित है कि प्रतिभासम्पन्न और पाण्डित्यमण्डित आचार्य कवि रामचन्द्र सूरि को पारतन्त्र्य ने अवश्य पीड़ित किया था अन्यथा उनकी कृतियों में स्वातन्त्र्य की उत्कट अभिलाषा इस प्रकार मुखरित न हुई होती ।
संस्कृत वाङ्मय की गौरववृद्धि और समृद्धि में कश्मीर के पश्चात् गुर्जरप्रान्त का ही सविशेष योगदान रहा है । आचार्य रामचन्द्र सूरि इसी गुजरात प्रान्त के निवासी थे । वहाँ का इतिहासप्रसिद्ध राज्य 'अणहिलपुरपट्टन' धर्माचार्यों और विद्वानों का आश्रयदाता रहा । यद्यपि अणहिलपुरपट्टन भी कश्मीर की भाँति शैवमतानुयायी शासकों के अधीन था तथापि उसने विद्वानों
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