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Contribution of Jainas to Sanskrit and. Prakrit Literature
जैनमहाकवि भूरामल जी का जयोजयमहाकाव्य और भट्टारक वादिचन्द्र का सुलोचना चरित अनुपममहाकाव्य है । जैन साहित्य में चरितकाव्यों की प्रधानता है । मानवजीवन को विभिन्न सांस्कृतिक मूल्यों से सार्थक करने की दिशा में जो भी व्यक्ति (पुरुष अथवा नारी) अपने जीवन को लगा देते हैं, उनके चरित को अमर रखने के लिए जैन कवि अपनी लेखनी चलाते रहे हैं । यही कारण है कि तीर्थंकरो के जीवन के अतिरिक्त अन्य महापुरुषों एवं महासतियों का जीवन चरित काव्य का विषय बना । जैन साहित्य में स्त्रीपात्र प्रधानरचनाएँ भी पर्याप्त मात्रा में लिखी गई है, जिनका विवरण विद्वानों ने दिया है । सुलोचनाचरित और जयोजयमहाकाव्य दोनों में नारी के ही उदात्त चरित को दरसाया गया है ।
मध्यकालीन गुजरात में जिन जैन कवियों ने संस्कृत साहित्य सर्जना की है, उनमें धनप्रभसूरि के शिष्य सर्वानन्दसूरि भी अन्यतम है। इन्होंने महान् धर्मात्मा, शूरवीर अहिंसाप्रेमी, साहसी व्यापारी १४वीं शतक के जैनश्रेष्ठी जगडूशाह को नायक बनाकर सात सर्गों में "श्रीजगडूचरित" नामक ऐतिहासिक महाकाव्य लिखा है, जिसकी चर्चा मोहनलाल दलीचन्द देसाई जी के "जैनसाहित्य का इतिहास" (मगनलाल डी० खख्खर सम्पादित) में हुई है । इस काव्य के अनुसार नायक श्रेष्ठी जगडूशाह देश-विदेश के साहसपूर्ण जहाजी व्यापार से अतिशय धनसम्पत्ति प्राप्त की थी । इन्होंने भद्रेश्वर (कच्छ) में न केवल जिनालय का निर्माण करवाया, अपि तु जब कच्छ, काठियावाड, गुजरात, सिंध आदि प्रदेशों में लगातार चार वर्षों तक दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था, तब इन्होंने द्रव्य-धान्य आदि का दान देकर वहाँ की जनता की सेवा की थी । ३८८ श्लोकों वाले इस चरितकाव्य का निर्देश, ऐतिहासिक अंशों के साथ अपनी टिप्पणी देते हुए ब्यूहलर ने अपने हस्तप्रति विषयक रिपोर्ट (२/२८४) में भी किया है । महाकवि सर्वानन्दसूरि की काव्यप्रतिभा भी नितान्त अवलोकनीय है :
"लक्ष्मीस्तरंगतरला पवनप्रकम्प
श्री वृक्षपत्रनिभमायुरिहांगभाजाम् । तारुण्यमेव नवशारदसान्ध्यराग
प्रायं स्थिरा सुकृतजा किल कीतिरेषा ||" इन जैन संस्कृत महाकाव्यों के अतिरिक्त समय समय पर जैनाचार्यों ने और भी काव्यकृतियों की रचनाएँ की हैं, जिनमें शत्रुजयमाहात्म्य, सुदर्शनचरित, यशोधरचरित, जैनकुमारसम्भव, महीपालचरित, क्षत्रचूडामणि, त्रिशतीशृंगार आदि लघुकाव्य तथा सुभाषितरत्नसन्दोह, सूक्तिमुक्तावली, (सिन्दूरप्रकरण उपनाम) आदि सुभाषितकाव्य प्रमुख है। इसी प्रकारः भक्तिरस से ओतप्रोत तीर्थंकर आदि की स्तुतियों में रचे काव्यों का भी संस्कृत में अभाव नहीं है । जबकि संस्कृत साहित्य, जैन कथासाहित्य से भी पूर्णतः समृद्ध और सबल है । इस विषय में कथारनाकर, बृहत्कथाकोश, प्रबन्धचिन्तामणि, प्रबन्धकोश, विविधतीर्थकल्प, उपमिति भवप्रपंच, मदनपराजय आदि महदुल्लेनीय हैं |
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