________________
२१८
Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
महाकाव्य का ऋणी हैं ।
त्रिषष्टिशलाकापुरुष नामक महाकाव्य में आ० हेमचन्द्र ने अन्तिम जैन तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी के बाद हुए ६३ आदर्श महापुरुषों, जिन्हें पारिभाषिक शब्दों में शलाकापुरुष की संज्ञा दी गई है - के जीवनचरित का मनोहर वर्णन प्रस्तुत किया है । ८. अभयदेवसूरि ( २२ ई०)
१२२१ ई० के आसपास रचित संस्कृत जैन महाकाव्य जयन्तविजय के रचयिता अभयदेवसूरि का जन्म कब और कहाँ हुआ था—यह कहना जहाँ कठिन है, वहीं वे तान्त्रिक प्रदेश के थे ऐसा उनके ग्रन्थालोकन से बताना कोई विरल नहीं । १९ सर्गों में विभक्त इनके जयन्तविजय महाकाव्य में कुल २२०० श्लोक आबद्ध है । सरल और सुबोध भाषाओं के बीच सूक्तियों के बाहुल्य को इस काव्य का शोभावर्द्धक अंश ही माना जाएगा । आप विजयचन्द्र के शिष्य तथा देवभद्र के पुत्र थे । ९. अमरचन्द्रसूरि (१२४३ ई०)
"वेणीकृपाण' विरुदविभूषितमहाकवि अमरचन्द्रसूरि गुजरात के चौलुक्यवंशीय नरेश विसलदेव (१२४३-६३ ई०) के सभापण्डित व जिनदत्तसूरि के शिष्य थे । इनके पाण्डित्य और कौशल के प्रसंग अनेक कथाएँ प्रभावक चरित एवं प्रबन्धकोश में पाई जाती है । आ० बलदेव उपाध्याय ने इन्हें श्वेताम्बर मतानुयायी माना है और इन्होंने १९ सर्गों में तीर्थकर ऋषभनाथ के वर्णनात्मक महाकाव्य जिनेन्द्रचरित अर्थात् पद्मानन्द का प्रणयन किया है । जबकि कविकल्पलता, (काव्यकल्पलता अथवा कवितारहस्य) इनकी दूसरी रचना है । इन्होंने महाभारत के आधार पर १८ पर्यों व ४४ सर्गों में ही बालभारत की रचना की है । साथ ही कविकल्पलता में इन्होंने अपनी तीन रचनाएँ-छन्दोरत्नावली, काव्यकल्पलतापरिमल एवं अलंकारप्रबोध की चर्चा की है, परन्तु ये रचनाये आज उपलब्ध नहीं है । व्याकरणविषयक इनका ग्रन्थ "स्यादिशब्दसमुच्चय" ने भी खूब प्रसिद्धि पाई है । काव्यामनायकार एवं वनमालानाटिकाकार दोनों ही अमरचन्द्र इनसे भिन्न थे । १०. आचार्यनयचन्द्रसूरि (१४००)
सुप्रसिद्धजैन नैयायिक जयसिंहसूरि के पौत्र आ० नयचन्द्रसूरि संस्कृत के प्रमुखमहाकवियों में परिगणित है। इन्होंने रणथम्भोर के प्रख्यात चौहानवंशीय राजा हम्मीरदेव के कृतित्व व व्यक्तित्व पर आधारित संस्कृत के ऐतिहासिक "हम्मीरमहाकाव्य" की रचना की थी। १४ सर्ग और १५७२ श्लोकों में आबद्ध यह अनुपम महाकाव्य प्रसादमयी भाषा में निबद्ध और वीररस से सर्वथा परिपूर्ण है । काव्य कला की दृष्टि से ही नहीं, वरन् ऐतिहासिकता की दृष्टि से भी यह महाकाव्य अद्भुत
और प्रतिभापूर्ण सफल रचना है, जिसका रचना काल १४०० से १४१० ई० के बीच निर्धारित होता है । यहाँ यह स्मरणीय है कि कर्पूरमंजरी की भाँति एक सट्टक "रंभामंजरी" की रचना भी इन्होंने की है, जिसमें संस्कृत के श्लोक भी कहीं कहीं पाये जाते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org