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जैनों की सैद्धांतिक धारणाओं में क्रम-परिवर्तन
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की स्थिति तो और भी शोचनीय है। यदि नामों के अंतर की उपेक्षा भी कर दी जाय, तो भी कम परिवर्तन का सैद्धांतिक आधार विचारणीय है । १०. दश वैयावृत्त्यों का क्रम परिवर्तन
भौतिक और आध्यात्मिक विकास में तप का महत्त्वपूर्ण स्थान है । बाह्य तपों की तुलना में अंतरंग तप अधिक निर्जराकर होते है । छह अंतरंग तपों में वैयावृत्त्य तीसरा तप है। स्थानांग १०.१७ एवं ५.४४-४५ में तथा तत्त्वार्थसूत्र ९.२१.२४ में वैयावृत्य के दस प्रकार बतलाये गये हैं जैसा नीचे की सारणी से स्पष्ट है : स्थानांग १०.१७
तत्त्वार्थ सूत्र ९.२४ आचार्य
आचार्य उपाध्याय
उपाध्याय स्थविर तपस्वी
तपस्वी
ग्लान
शैक्ष
शैक्ष
कुल
ग्लान
गण
गण
११.
संघ
संघ सार्मिक
१०. साधु
मनोज्ञ इससे पता चलता है कि जहाँ तत्त्वार्थ सूत्र में 'स्थविर' और 'साधर्मिक' का नाम नहीं है, वहीं स्थानांग में 'मनोज्ञ' और 'साधु' की वैयावृत्य का नाम नहीं है । यदि साधर्मिक को 'साधु' माना जाय, तो भी 'मनोज्ञ' का अभाव तो है ही । यही नहीं, यहाँ भी कम परिवर्तन दृष्टव्य है । संभवत: 'गण' और 'कुल' का विपर्यय तो परिभाषा की भिन्नता के कारण हो सकता है । 'ग्लान' का क्रम भी स्थानांग में उचित लगता है । इन वैयावृत्यों के क्रम को ऐतिहासिक विकास क्रम में भी देखा जा सकता है । फलतः वैयावृत्त्य के नाम और क्रम भी तर्क-संगति चाहते है । ११. स्वाध्याय के भेद
जैन आध्यात्मिक शास्त्र में अंतरंग तप के रूप में स्वाध्याय का अत्यंत महत्त्व है क्योंकि उत्तराध्ययन के अनुसार यह ज्ञानावरण कर्म का क्षय । क्षयोपशम करता है । स्थानांग ५.२२० और उत्तराध्ययन २९.१९ में इसके वाचना, पृच्छना, परिवर्तना (आम्नाय), अनुप्रेक्षा और धर्मकथा के
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