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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature सामान्य है । फलतः इस क्रमविपर्यय का कारण भी अन्वेषणीय है । ९. दश धर्मों का क्रम एवं नाम परिवर्तन
सामान्य गृहस्थ एवं साधुओं के कार्मिक संवर एवं निर्जरा हेतु जैन तंत्र में दश धर्मों का पर्याप्त महत्त्व है । लेकिन यहाँ भी स्थानांग और तत्त्वार्थसूत्र में इनके नाम और कमों में अंतर है जैसा नीचे की सारणी से स्पष्ट है :स्थानांग १०.१६ एवं ५.३४-३५
तत्त्वार्थ सूत्र, ९.६ क्षान्ति
क्षमा मुक्ति (निर्लोभता)
मार्दव आर्जव
आर्जव मार्दव
शौच लाघव
सत्य सत्य
संयम संयम
तप
त्याग
तप त्याग ब्रह्मचर्य
आकिंचन्य ब्रह्मचर्य
इस क्रम से स्पष्ट है कि स्थानांग का क्रम, कषायों के क्रम के आधार पर किंचित् विपर्यास में है । साथ ही, यहाँ आकिंचन्य के बदले 'लाघव' का नाम दिया गया है । शौच के लिये मुक्ति एवं क्षमा के लिये 'क्षांति' नाम दिया गया है । इसके विपर्यास में, तत्त्वार्थसूत्र का क्रम अधिक संगत लगता है। कुंदकुंद ने भी बारस-अणुवेक्खा गाथा ७० में शौच के पूर्व सत्य रखकर एक नया आयाम खोल दिया है । वस्तुतः यह उचित प्रतीत नहीं होता। साथ ही, यदि इन दश धर्मों को अहिंसादि पाँच व्रतों का विस्तार माना जाय, तो भी कुंदकुंद संगत नहीं लगते क्योंकि १. अहिंसा के रूप में (१-४) क्षमा, मार्दव, आर्जव एवं शौच आते हैं । २. सत्य के रूप में (५) सत्य धर्म आता है । ३. अचौर्य के रूप में (६, ७, ८,) संयम, तप और त्याग आते हैं । ४. ब्रह्मचर्य के रूप में (९) ब्रह्मचर्य आता है ।। ५. अपरिग्रह के रूप में (१०) आकिंचन्य या लाघव आता है ।
. इन धर्मों के क्रम में अपरिग्रह (आकिंचन्य) को ब्रह्मचर्य के पूर्व का स्थान भी विवेचनीय है । अन्यथा उन्हें पाँच व्रतों का विस्तार कहना समुचित न होगा । स्थानांग के 'लाघव'
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