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________________ १७२ Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature 'सर्वसिद्धांत संग्रह' को लें अथवा माध्वाचार्य कृत 'सर्वदर्शन संग्रह' को, साथ ही जैन परम्परा के राजशेखरकृत (वि० सं० १४०५) षड्दर्शनसमुच्चय, आचार्य मेरुतुंगकृत षड्दर्शननिर्णय, जिनदत्तसूरि के 'विवेक-विलास', अज्ञातकर्तृक 'सर्वसिद्धांत प्रवेशक' आदि सभी पश्चात्वर्ती आचार्यों को लें, उन सभी की कृतियों में दर्शन के क्षेत्र में आचार्य हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय, जैसी उदारता, निरपेक्षभाव एवं समन्वयवादी दृष्टिकोण का पूर्णतः अभाव परिलक्षित होता है । अपने परवर्ती ग्रंथों में वे अन्य परम्पराओं और उनके प्रवर्तकों के प्रति अत्यन्त शिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं तथा उनके प्रति बहमान सचित करते हैं। अपने ग्रंथ 'शास्त्रवार्ता समुच्चय' के प्रारम्भ में ही ग्रंथ-रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः । जायते द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिसुखावहः ॥ अर्थात् इसका अध्ययन करने से अन्य दर्शनों के प्रति द्वेष-बुद्धि समाप्त होकर तत्त्व का बोध हो जाता है । इस ग्रंथ में वे कपिल को दिव्य पुरुष एवं महामुनि के रूप में सूचित करते कपिलो दिव्यो हि स महामुनिः (शास्त्रवार्तासमुच्चय, २३७) इसी प्रकार वे बुद्ध को भी अर्हत्, महामुनि, सुवैद्य आदि विशेषणों से अभिहित करते हैं : यतो बुद्धो महामुनिः सुवैद्यवत् (शास्त्रवार्तासमुच्चय, ४६५-६६) यहाँ हम देखते हैं कि जहाँ एक ओर अन्य दार्शनिक अपने विरोधी दार्शनिकों का खुलकर परिहास करते हैं, यथा-न्यायदर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम को गाय का बछड़ा या बैल और महर्षि कणाद को उल्लू कहते हैं, वहीं दूसरी ओर हरिभद्र अपने विरोधियों के लिए महामुनि और अर्हत् जैसे सम्मानसूचक विशेषणों का प्रयोग करते हैं । इस प्रकार आचार्य हरिभद्र ने अन्य परम्पराओं के प्रति जिस शिष्टता और आदरभाव का परिचय दिया है, वह हमें जैन और जैनेतर किसी भी परम्परा के अन्य ग्रंथों में उपलब्ध नहीं होता । आचार्य हरिभद्रसूरि ने ईश्वरवाद की अवधारणा में भी कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों को देखने का प्रयास किया हैं । उन्होंने ईश्वर कर्तृत्ववाद की अवधारणा को अपने ढंग से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। वे कहते हैं कि जो व्यक्ति आध्यात्मिक निर्मलता के फलस्वरूप अपने विकास की उच्चतम भूमिका को प्राप्त हुआ हो वह असाधारण आत्मा है और वही ईश्वर या सिद्ध पुरुष है । उस आदर्श स्वरूप को प्राप्त करने के कारण कर्ता तथा भक्ति का विषय होने से वह उपास्य है । इस कथन से स्पष्ट है कि वे मानव मन की शरणागति की मूलभावना में कसी तरह का ठेस नहीं पहुँचाना चाहते, बल्कि ईश्वरवादी अवधारणा का समन्वयात्मक दृष्टि से विवेचन करते हैं । इसके साथ ही हरिभद्र यह भी मानते हैं कि प्रत्येक जीव तत्त्वतः अपने शुद्ध रूप में परमात्मा और भविष्य का निर्माता है और इस दृष्टि से यदि विचार करें तो वह 'ईश्वर' भी है और 'कर्ता' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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