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इसके पश्चात् उनके जीवन में एक नया मोड़ आया । बी० ए० करने के बाद वे मद्रास गये और वहाँ पर लॉ कॉलेज में भर्ती हुए । उस समय उनके ही गोत्र के अनुभवी और वृद्ध भ्राता श्री ऋषभदासजी प्राग्वाट् जो खमीजी के नाम से प्रख्यात थे और अत्यंत धार्मिक वृत्ति के थे उनके साथ रहे । उनके साथ रहने के कारण उनके पास जैन धर्म का जो विपुल साहित्य था उसका निरीक्षण-परीक्षण करने से उनके हृदय में एक प्रबल भावना का उदय हुआ कि जैन धर्म के मूल ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए और वह भी व्यवस्थित रूप में । इस कारण से उन्होंने लॉ कॉलेज का त्याग कर दिया । फिर जैन साहित्य के अध्ययन के लिए वयोवृद्ध भ्राता ऋषभदासजी ने नागपुर के जैन विद्या के प्रख्यात विद्वान् डॉ० हीरालालजी जैन का संपर्क किया । उनकी नेक सलाह के अनुसार पहले एक वर्ष तक मद्रास में ही पंडित जी के पास संस्कृत का अध्ययन किया और अपनी ओर से प्राकृत और पालि भाषा का भी प्रारंभिक अध्ययन करते रहे । तत्पश्चात् नागपुर की मॉरिस कॉलेज में डॉ० हीरालालजी के विद्यार्थी के रूप में एम० ए० का अध्ययन करके ई० सन् १९५४ में नागपुर विश्वविद्यालय के प्रथम दर्जे में एम० ए० की उपाधि प्राप्त की ।
पुनः मद्रास आकर अध्यापन का कार्य किया और वहाँ रहते हुए १९५५ और १९५६ में क्रमशः राजस्थान विश्वविद्यालय से संस्कृत और हिन्दी भाषा में बी० ए० की परीक्षा पुनः पास की । तत्पश्चात् मुजफ्फरपुर (बिहार) में नव-स्थापित “प्राकृत, जैन, अहिंसा शोधपीठ" में १९५७ में पीएच० डी० के अध्ययन के लिए भर्ती हुए । उस संस्था के प्रथम निदेशक डॉ० हीरालालजी जैन के ही मार्गदर्शन में प्राचीनतम जैन रामकथा ग्रंथ यानी विमलसूरि के 'पउमचरिय' नामक प्राकृत ग्रंथ (महाकाव्य) का संशोधनात्मक, तुलनात्मक एवं सांस्कृतिक अध्ययन करके १९६२ में अपना महानिबन्ध प्रस्तुत किया तथा १९६३ में बिहार विश्वविद्यालय से उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की ।
पुनः उनके जीवन में एक नया मोड आया जो उन्हें वर्तमान पद तक पहुँचाने में सहायक बना । रीडर तक पहुँचे वे अपनी विद्या-साधना और पुरुषार्थ के आभारी है । ई० सन् १९५९ में अहमदाबाद में पूज्य आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी की प्रेरणा से और शेठ श्री कस्तुरभाई लालभाई के आर्थिक सहयोग से "श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर" की स्थापना की गई थी और उसके प्रथम निदेशक पं० श्री दलसुखभाई मालवणिया ने उनको एक संशोधन अधिकारी के रूप में आमंत्रित किया और डॉक्टरेट का परिणाम आने के पूर्व ही सन् १९६२ में इस संस्था में संलग्न होकर सबसे पहले “प्राकृत प्रोपर नेम्स डिक्शनरी" के दो भागों का डॉ. मोहनलाल मेहता के साथ सृजन किया जो अपने आप में एक विशिष्ट ग्रन्थ है ।
उसके पश्चात् सन् १९६९ में गुजरात विश्वविद्यालय के 'भाषा साहित्य भवन' में प्राकृत भाषा का एक नया विभाग प्रारंभ हुआ और वे उसमें प्राकृत के व्याख्याता के रूप में जुड़ गये । वहाँ पर २२ वर्ष तक सेवा अर्पित करके १९९१ में रीडर के रूप में और प्राकृत-पालि विभाग के अध्यक्ष के रूप में सेवा-निवृत्त हुए । इस विभाग के विकास में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान
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