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________________ योग का स्वरूप एवं भेद 65 हैं - निश्चय और व्यवहार । तीर्थंकर की देशना (उपदेश) उभय नयों पर आधारित होती है। इसी सिद्धान्त का समर्थन हरिभद्रसूरि ने भी अपने ग्रन्थों में किया है। योगशतक नामक ग्रन्थ में उन्होंने योग के स्वरूप को उभय दृष्टि से प्रस्तुत करते हुए योग के दो भेद किये हैं - १. निश्चययोग, २. व्यवहारयोग। १. निश्चययोग सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र - इन तीनों का आत्मा के साथ सम्बन्ध 'निश्चययोग' है। इन तीनों का योग आत्मा को मोक्ष से जोड़ता है। इसलिए उसको योग-संज्ञा दी गई है। जैनशास्त्रों में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मोक्ष के साधन के रूप में माना गया है। पदार्थों को यथार्थ रूप से जानने की रुचि - निष्ठा का होना सम्यग्दर्शन है। वस्तु के स्वरूप का यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान है। शास्त्रोक्त विधिनिषेध के अनुरूप उसका आचरण करना सम्यक्चारित्र है। स्वतंत्र रूप में तीनों में से कोई भी साधन मोक्ष का तु नहीं हो सकता। सम्यग्दर्शन के सिद्ध होने पर ही सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है। कुछ विद्वान् सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होने पर ही सम्यग्दर्शन को संभव मानते हैं। वस्तुतः दोनों साथ-साथ प्राप्त होते हैं। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों की प्राप्ति होने पर ही सम्यक चारित्र सिद्ध होता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के प्राप्त हो जाने पर भी यदि चारित्र-शुद्धि नहीं होती अर्थात् चारित्र का पालन नहीं किया जाता तो दुर्गति की संभावना होती है। ज्ञान की अपेक्षा चारित्र की प्रधानता को आ० हरिभद्र आदि ने स्पष्ट रूप से उद्घोषित किया है। इस त्रिविध योग के पालन से योग परिपुष्ट होता है और आत्मा का आध्यात्मिक उत्कर्ष होता जाता है। योग की पूर्णता ही मोक्ष प्राप्त कराती है। इसलिए स्पष्ट रूप से हरिभद्रसूरि ने सम्यग्ज्ञानादि तीनों गुणों के साथ आत्मा में प्रवेश करने को 'योग' कहा है। तीनों के संबंध से निश्चित ही आत्मा का मोक्ष के साथ संबंध होता है अर्थात आत्मा मोक्ष की ओर अभिमुख होती है। इसलिए उन्होंने इसे 'निश्चययोग' की संज्ञा दी है। आ० हेमचन्द्र ने भी उनसे प्रभावित होकर ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र रूप 'रत्नत्रय' को मोक्ष का होने से 'योग' कहा है। ॐ १. पंचवस्तुक. १०१४ एवं उस पर टीका : तत्त्वार्थराजवार्तिक, १/५/३३ २. इह योगो द्विधा - निश्चयतो व्यवहारतश्चेति ।- योगशतक, २ पर वृत्ति ३. निच्छयओ इह जोगो सण्णाणाईण तिण्ह संबंधो । मोक्खेण जोयणाओ णिद्दिट्टो जोगिनाहेहिं ।। - योगशतक, २ ४. (क) सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । - तत्त्वार्थसूत्र, १/१ (ख) नाणं च दंसणं घेव, चरितं च तवो तहा ।। एस भग्गो त्ति पन्नतो, जिणेहिं वरदंसिहि ।।- उत्तराध्ययनसूत्र, २८/२ योगशतक. ३: उत्तराध्ययनसूत्र. २८/३५; तत्त्वार्थसूत्र, १/२: स्थानांगसूत्र, अभयदेववृत्ति,१, पृ०१६: नियमसार, तात्पर्यवृत्ति, ३; योगशास्त्र, १/१७ योगशतक, ३: उत्तराध्ययनसूत्र, २८/३५: योगशास्त्र, १/१६ (क) सच्चरणमणुट्ठाणं विहिपडिसेहाणुगं तत्थ ।। - योगशतक, ३ (ख) योगशास्त्र, १/१८ ८. नन्दीसूत्र, हरिभद्रवृत्ति, पृ० ६४-६५: तत्त्वार्थराजवार्तिक, १/३१/२ पंचवस्तुक, १६५५ - १६६०; आदिपुराण २४/१२१ १०. दशवैकालिकसूत्र, हरिभद्रवृत्ति, उपसंहार (चूलिका), पृ० २८४-२८५ तथा प्रथमाध्ययन, पृ८०-८१ निच्छयओ इह जोगो सण्णाणाईण तिण्ह संबंधो । मोक्खेण जोयणाओ णिदिदट्ठो जोगिणाहेहिं ।। - योगशतक, २ १२. चतुर्वर्गेऽग्रणी मोक्षो, योगस्तस्य च कारणम् । ज्ञान-श्रद्धान चारित्ररूपं, रत्नत्रयं च सः ।। - योगशास्त्र, १/१५ ॐ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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