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________________ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग में परस्पर साम्य-वैषम्य एवं वैशिष्ट्य 279 यातायात, श्लिष्ट और सुलीन, इन चार अवस्थाओं का निरूपण भी किया है जो उनकी निजी व मौलिक कल्पना है। उपा० यशोविजय ने भी गुणस्थान-परम्परा का ही आश्रय ग्रहण किया है तथा आगमोत्तरवर्ती त्रिविध आत्माओं का चित्रण भी प्रस्तुत किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने आ० हरिभद्र का अनुकरण कर उनके ग्रन्थो में वर्णित आध्यात्मिक विकास के विविध वर्गीकरण को अधिक स्पष्ट करने का प्रयास भी किया है। उनकी यह विशेषता है कि उन्होंने पातञ्जलयोग-परम्परा में वर्णित चित्त की क्षिप्तादि पांच भूमिओं का जैन-परम्परानुसार वर्णन कर दोनों में साम्य दर्शाया है। ___ योग-साधना के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाली सिद्धियाँ यद्यपि योग-साधना में विघ्न होती हैं तथापि साधक के आत्मविश्वास की वृद्धि में भी सहायक होती हैं। इसीलिए पातञ्जलयोग एवं जैनयोग-परम्परा में योगज-सिद्धियों का वर्णन किया गया है। वर्णन-शैली में भिन्नता होते हए भी मूलतः उनमें कोई भेद नहीं है। दोनों परम्पराओं में साधक को सिद्धियों के प्रति अनासक्त भाव रखते हुए योग-मार्ग में आगे बढ़ने का उपदेश दिया गया है, तभी साधक अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने में सफल हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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