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________________ 258 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन आदि स्थानों में और भयानक श्मशानों में तीव्र आतप, शीत आदि की बाधा होने पर भी घोर उपसर्गों का सहना। २. महातप पक्ष, मास, छहमास और एक वर्ष का उपवास करना अथवा मतिज्ञानादि चार सम्यग्ज्ञानों के बल से मंदरपंक्ति सिंहनिष्क्रीडित आदि सभी महान् तपों को करना। ३. उग्रतपर पञ्चमी, अष्टमी और चतर्दशी को उपवास करना तथा दो या तीन बार आहार न मिलने पर तीन, चार अथवा पांच उपवास करना। धवला पुस्तक तथा तिलोयपण्णत्ति में उग्रतप के दो उपभेद माने गये हैं - उग्रोग्रतप और अवस्थिततप। दीक्षोपवास आदि को करके आमरणांत एक-एक अधिक उपवास को बढ़ाकर निर्वाह करना उग्रोयतप है। दीक्षा के लिए एक उपवास करके पारणा करना, पुनः एक दिन के अन्तर से उपवास करके पारणा करना । इसप्रकार किसी निमित्त से एक उपवास के स्थान पर दो उपवास (षष्ठोपवास) करना, फिर दो से विहार करते हुए अष्टम, दशम और द्वादश आदि के क्रम से उपवासों को जीवनपर्यन्त बढ़ाते जाना, पीछे न हटना, अवस्थित उग्रतप कहलाता है। ४. दीप्ततप शरीर से बाहर सूर्य जैसी कान्ति का निकलना। ५. तप्ततप तपे हुए लौहपिण्ड पर गिरी हुई जल की बूँद की तरह आहार ग्रहण करते हुए आहार का पता न लगना अर्थात् आहार का पच जाना। ६. घोरगुणब्रह्मचारिता या अघोरब्रह्मचारित्व मुनि के क्षेत्र में भी चोर आदि की बाधाएँ, काल महामारी और महायुद्ध आदि का न होना अथवा सब गुणों के आश्रय से महर्षि का ब्रह्मचारित्व अघोर (शान्त, अखण्डित) रहना। ७. घोरपराक्रम मुनियों को देखकर भूत, प्रेत, राक्षस, शाकिनी आदि का डर जाना। बलऋद्धि बलऋद्धि के तीन भेद हैं - मनोबल, वचनबल और कायबल । १. तिलोयपण्णत्ति, ४/१०५४; तत्त्वार्थराजवार्तिक. ३/३६/३/२०३: तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६: धवला, पुस्तक ६. पृ०६१ तिलोयपण्णति. ४/१०५० तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३: तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६: धवला पुस्तक ६. पृ० ६७ धवला, पुस्तक ६, पृ०८७.८६ तिलोयपण्णत्ति, ४/१०५०-५१ तिलोयपण्णत्ति,४/१०५२; तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३: तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६; धवला, पुस्तक ६. पृ०६० तिलोयपण्णति, ४/१०५३: तत्त्वार्थराजवार्तिक. ३/३६/३/२०३: तत्त्वार्थसूत्र. श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६: धवला. पुस्तक ६.पृ० ६१ तिलोयपण्णत्ति, ४/१०५८-६०तत्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३: तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६: धधला. पुस्तक ६. पृ० ___ तिलोयपण्णत्ति, ४/१०५६-५७; तत्त्वार्थराजवार्तिक,३/३६/३/२०३: तत्वार्थसूत्र. श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६; धपला, पुस्तक ६, पृ० ६३ तिलोयपण्णत्ति. ४/१०६१-६६: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३६/३/२०३: तत्वार्थसूत्र. श्रुतसागरीयवृत्ति ३/३६: धवला. पुस्तक ६. पृ०६८-६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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