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________________ 242 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन को धारण कर लेता है। पतञ्जलि ने भी 'समाधि' का लगभग यही अर्थ ग्रहण किया है। उनके अनुसार जब केवल ध्येय मात्र की ही प्रतीति हो और चित्त स्वरूपशन्य हो जाए तो वह अवस्था 'समाधि है। भोज ने समाधि का लक्षण करते हुए कहा है कि विघ्नों को हटाकर जिसमें मन को एकाग्र किया जाता है वह 'समाधि' है। पातञ्जलयोगसूत्र में समाधि के दो भेद निर्दिष्ट हैं - सम्प्रज्ञातसमाधि एवं असम्प्रज्ञातसमाधि। सम्प्रज्ञातसमाधि में साधक को चित्तवृत्ति की एकाग्रता के स्थूल अथवा सूक्ष्म आलम्बनों का भान होता रहता है। आलम्बनों के स्थूलत्व अथवा सूक्ष्मत्व के आधार पर ही सम्प्रज्ञातसमाधि के चार भेद किये गये हैं - २. विचारानुगत, ३. आनन्दानुगत, ४. अस्मितानुगत। सम्प्रज्ञातसमाधि में समस्त चित्तवृत्तियों का निरोध नहीं होता। ध्याता और ध्येय की प्रतीति बनी रहती है, इसलिए समाधि की यह अवस्था पूर्णयोग को प्राप्त नहीं होती। पतञ्जलि ने इसे 'सबीजसमाधि' भी कहा है। दूसरे शब्दों में इसे 'सालम्बन समाधि' भी कह सकते हैं। 'असम्प्रज्ञातसमाधि' में ध्याता, ध्यान और ध्येय तीनों ही एकरूप हो जाते हैं। इस अवस्था में समस्त चित्तवृत्तियों का निरोध हो जाता है। चित्त में मात्र संस्कार ही अवशिष्ट रह जाते हैं। इसलिए इसे 'निर्बीजसमाधि' भी कहा गया है। दूसरे शब्दों में सबीज और निर्बीज समाधि को सालम्बन और निरालम्बन ध्यान भी कहा जा सकता है। पतञ्जलि के योगसूत्र में असम्प्रज्ञातसमाधि के भवप्रत्यय और उपायप्रत्यय नामक जो दो अवान्तर भेद बताए गए हैं, इनमें उपायप्रत्यय समाधि ही वास्तविक समाधि है। यह श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा से प्राप्त होती है। इसमें स्थित साधक अपने लक्ष्य को निश्चित रूप से प्राप्त कर लेता है। पातञ्जलयोगदर्शन में 'योग' को 'समाधि' रूप मानकर उसकी व्याख्या की गई है। वहाँ क्लेशकर्म वासना के समूलनाशक रूप वृत्तिनिरोध को 'योग' माना गया है।२ जैनदर्शन में वृत्तियों के पूर्णनाश से मोक्ष-प्राप्ति की संभावना बताई गई है। शक्लध्यान और समाधि, दोनों का सम्बन्ध वृत्तिनिरोध से है। अतः मोक्ष प्राप्ति के विषय में दोनों दर्शनों में मतैक्य दृष्टिगत होता है। धारणा, ध्यान और समाधि, तीनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसलिए महर्षि पतञ्जलि ने तीनों के एकत्रीभाव को संयम की संज्ञा दी है। वस्तुतः 'ध्यान' की ही उत्कृष्ट स्थिति 'समाधि' है और इसकी पूर्वावस्था 'धारणा' है। परन्तु महर्षि पतञ्जलि ने धारणा, ध्यान और समाधि का पृथक्-पृथक् अंग के रूप में भी वर्णन किया है जबकि ये तीनों ध्यान की ही क्रमिक अवस्थाएँ हैं। तीनों को पृथक-पृथक् अंग स्वीकार करने से योगसूत्र में ध्यान का स्वरूप अधिक विकसित नहीं हो सका। इसके विपरीत जैन-परम्परा में ध्यान को इतने व्यापक अर्थ में प्रस्तुत किया गया है कि उससे पृथक् समाधि जैसा कोई अंग स्वीकार * १. तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः। - पातञ्जलयोगसूत्र, ३/३ २. सम्यगधीयते एकाग्री क्रियते विक्षेपान् परिहृत्य मनो यत्र सः समाधिः । - भोजवृत्ति, पृ० ११७ व्यासभाष्य, पृ०८-११ वितर्कविचारानन्दाऽस्मितानुगमात्सम्प्रज्ञातः।- पातञ्जलयोगसूत्र, १/१७ व्यासभाष्य १/५०-५१ ताः एव सबीजः समाधिः । - पातञ्जलयोगसूत्र, १/४६ व्यासभाष्य, पृ०६० विरामप्रत्ययाऽभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः । - पातञ्जलयोगसूत्र, १/१८ एष निर्बीजः समाधिरसंप्रज्ञातः। - व्यासभाष्य, पृ०६५ * s wi वही ११. श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वकं इतरेषाम् ।- पातञ्जलयोगसूत्र, १/२० १२. पातञ्जलयोगसूत्र, १/१ पर बालकराम स्वामि की टिप्पणी १३. त्रयमेकत्र संयमः | - पातञ्जलयोगसूत्र, ३/४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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