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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
मन से ही नहीं माना गया था, वह मन, वाणी और शरीर, तीनों से सम्बन्धित था। इस अभिमत के आधार पर मन की निष्प्रकम्प दशा 'ध्यान' है।' ___ आ० हरिभद्र के अनुसार स्थिर अध्यवसान आत्मपरिणाम का नाम 'ध्यान' है। योगबिन्दु में उन्होंने शुभ प्रतीकों के आलम्बन अर्थात् उन पर चित्त के स्थिरीकरण को ध्यान कहा है जो दीपक की स्थिर लौ के समान ज्योतिर्मय, सूक्ष्म तथा अन्तःप्रविष्ट चिन्तन से समायुक्त होता है। आ० शुभचन्द्र ने एकाग्रचिन्तानिरोध को ध्यान कहा है जिसका अभिप्राय है प्रत्ययान्तर के संसर्ग से रहित होकर एक ही वस्तु का स्थिरतापूर्वक चिन्तन किया जाना।
ध्यान का यह स्वरूप छद्मस्थ में ही संभव है, इसलिए ऐसा ध्यान बारहवें गुणस्थान तक होता है। छद्मस्थ के ध्यान का काल-परिमाण अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक बताया गया है। इससे अधिक काल तक छद्मस्थ का ध्यान एक विषय पर टिक नहीं सकता। परन्तु एक विषय से दूसरे विषय पर, दूसरे से तीसरे विषय पर चिन्तन का प्रवाह चालू रहने से ध्यान का प्रवाह अधिक समय तक भी चल सकता है। जैसा कि आ० हेमचन्द्र तथा आ० यशोविजय ने भी कहा है कि अन्तर्मुहूर्त से आगे आलम्बन भेद से ध्यानान्तर हो सकता है, किन्तु एक विषयक ध्यान अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक नहीं हो सकता। अनेक आलम्बनों में संक्रमण होने पर जो दीर्घ स्थिति वाली तथा निरन्तर अन्य-अन्य ध्यान के रूप वाली जो स्थिति होती है उसे ध्यानश्रेणी या ध्यानसन्तति कहा जाता है। वस्तुतः धारणा द्वारा स्थापित देश में चित्त की एकतानता 'ध्यान' है। ध्यान के भेद-प्रभेद ___ जैनागमों एवं जैनयोग सम्बन्धी आगमोत्तर साहित्य में ध्यान के चार प्रमुख भेदों का वर्णन मिलता है - आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । इनमें से आर्त और रौद्र ध्यान संसार-बन्ध के कारण होने से अप्रशस्त अर्थात् अशुभ माने गये हैं, जबकि धर्मध्यान और शुक्लध्यान मोक्ष के कारण होने से प्रशस्त अर्थात् शुभ कहे गये हैं। इन्हें क्रमशः दुर्ध्यान और सुध्यान की संज्ञा भी दी गई है। ध्यान के आर्त आदि चार भेदों में से प्रत्येक के पृथक-पृथक् चार भेदों का निर्देश भी किया गया है।
आर्तध्यान परिग्रह और अब्रह्मचर्य के विषयों से सम्बन्धित किया गया चिन्तन है और रौद्रध्यान हिंसा, असत्य, चौर्य और विषयरक्षण - इन चार अव्रतों के विषयों से सम्बन्धित चिन्तन है। इसलिए संसार-बन्ध
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१. आवश्यकनियुक्ति, १४७७-१४६२
यत् स्थिरमध्यवसानं तद् ध्यानम् । - ध्यानशतक, २ पर हरिभद्र वृत्ति शुभैकालम्बनं चित्तं ध्यानमा?मनीषिणः । स्थिरप्रदीप सदृशं सूक्ष्माभोगसमन्वितम् ।। - योगबिन्दु, ३६२
ज्ञानार्णव २३/१४ (१.२) ५. मुहूर्तान्तर्मनःस्थैर्य, ध्यानं छद्मस्थयोगिनाम् ।- योगशास्त्र. ४/११५
मुहूर्तात्परतश्चिन्ता, यद्वा ध्यानान्तरं भवेत्। बहर्थसंक्रमे तु स्याद्दीर्घाऽपि ध्यानसंततिः ।। - योगशास्त्र, ४/११६ मुहूर्तान्तर्भवेद् ध्यानमेकार्थे मनसः स्थितिः । बर्थसंक्रमे दीर्घाऽप्यच्छिन्ना ध्यानसंततिः । - अध्यात्मसार, ५/१६/२ चित्तस्य धारणादेशे प्रत्ययस्यैकतानता । ध्यानं ततः सुखं सारमात्मायत्तं प्रवर्तते ।। - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २४/१८ स्थानांगसूत्र, ४/२४७; समवायांगसूत्र, ४/२; भगवतीसूत्र, २५/७/१३; आवश्यकनियुक्ति, १४७७, मूलाचार, १६७: औपपातिकसूत्र,३० तत्त्वार्थसूत्र, ६/२८; महापुराण, २४/२८; ध्यानशतक, ५ तत्त्वानुशासन, ३४ व २२०; ज्ञानार्णव, ४/१; २३/१८-१६,
अध्यात्मसार, ५/१६/३: आवश्यकनियुक्ति, हरि० वृ० ध्यानाधिकार, गा०२ ११. तत्त्वार्थसूत्र, ६/२८, सिद्धसेनटीका एवं श्रुतसागरीय वृत्ति; ध्यानशतक ३, ज्ञानार्णव, २५/२०, योगशास्त्र, ४, ११५
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