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________________ 210 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन ___ व्यक्ति के अनुशासन के लिए लागू होने वाले चारित्र सम्बन्धी विधान 'नियम' के नाम से जाने जाते हैं। महर्षि पतञ्जलि ने पांच प्रकार के नियमों का उल्लेख किया है-१. शौच, २. संतोष, ३. स्वाध्याय, ४. तप और ५. ईश्वर-प्रणिधान। शौच का अर्थ है 'शुद्धि'। बाह्य और आभ्यन्तर भेद से शौच के दो भेद कहे गए हैं। मिट्टी, जल आदि के द्वारा शरीर के बाहरी अंगों को शुद्ध करना तथा मेध्य आहार आदि द्वारा शरीर के आंतरिक विकारों को दूर करना 'बाह्य शौच' है। चित्तगत मलों को दूर करना, 'आभ्यन्तर शौच' है। जीवनयापन के आवश्यक पदार्थों के अतिरिक्त अन्य पदार्थों की अस्पृहा 'संतोष' है। द्वन्द्वों का सहना 'तप' है। द्वन्द्व से तात्पर्य क्षुधा-पिपासा, शीत-उष्णता, आसन-स्थान तथा काष्ठमौन एवं आकारमौन आदि हैं। प्रणव आदि पवित्र मन्त्रों का जप करना तथा मोक्ष-मार्ग की ओर प्रवृत्त कराने वाले शास्त्रों का निरन्तर अध्ययन करते रहना ‘स्वाध्याय' कहलाता है। सभी (लौकिक व वैदिक) कर्मों को (फलाकांक्षा के बिना) परमगुरु ईश्वर को समर्पित कर देना 'ईश्वर-प्रणिधान' है। पातञ्जलयोगसूत्र में नियमों के पालन के सम्बन्ध में पूर्ण प्रतिष्ठा की कोई शर्त नहीं रखी गई। इससे ज्ञात होता है कि साधक जितना इनका पालन करता है, उतना ही उसे लाभ मिलता है। जैन मन्तव्यानुसार नियमकाल (समय) की मर्यादा को लेकर किये जाने वाले आचार 'नियम' कहलाते हैं। नियम के अन्तर्गत 'पर' के सम्बन्धों को लेकर 'स्व' के अनुशासन के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल की मर्यादा सहित व्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत, आदि धारण किये जाते हैं। (इनका वर्णन पिछले अध्याय में किया जा चुका है)। उपा० यशोविजय ने पतञ्जलि द्वारा निरूपित नियमों की अपने ही ढंग से व्याख्या की है। उन्होंने 'शौच' से भावशौच को बाधित न करने वाला द्रव्यशौच अर्थ ग्रहण किया है। द्रव्यशौच के अन्तर्गत स्नान शरीर-शुद्धि, बाह्य स्थान-शुद्धि आदि परिगणित हैं। भावशौच आत्मा का निर्मल परिणाम है। संतोष आदि भाव अंतरंग शुद्धि रूप हैं। अंतरंग शुद्धि होने से व्यक्ति की तृष्णा समाप्त हो जाती है इसलिए असंतोष का प्रश्न ही नहीं उठता। इस दृष्टि से भावशौच के अंतर्गत ही संतोष का समावेश सिद्ध हो जाता है। यही कारण है कि यशोविजय ने संतोष को पृथक् रूप से परिगणित करना आवश्यक नहीं समझा। तप के सम्बन्ध में जैन मान्यतानुसार क्षुधा और शरीर की कृशता तप का लक्षण नहीं है। अपितु तितिक्षा (क्रोध और दीनता से रहित सहन परिणाम वाली क्षमा) तथा ब्रह्मगुप्ति (नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य पालन का उपाय) आदि स्थान रूप बोध ही तप है। जैनदर्शन में ही अन्यत्र विषय-कषायों का निग्रह करके ध्यान व स्वाध्याय में निरत होते हुए आत्मचिन्तन को तप कहा गया है। तप के विषय में ही यशोविजय का ॐ use १. शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः । - पातञ्जलयोगसूत्र, २/३२; द्वात्रिंशदवात्रिंशिका, २२/२ २. तत्र शौचं मृज्जलादिजनितं मेध्याभ्यवहरणादि च बाह्यम्। आभ्यन्तरं चित्तमलानामाक्षालनम्।- व्यासभाष्य, पृ०२८२ ३. संतोषः संनिहितसाधनादधिकस्यानपादित्सा।- वही ४. तपो द्वन्द्वसहनम्। द्वन्द्वं च जिघत्सापिपासे शीतोष्णे स्थानासने काष्ठमौनाकारमौने च। - वही, पृ०२८२, २८३ स्वाध्यायः मोक्षशास्त्राणामध्ययनं प्रणवजपो वा।- पातञ्जलयोगसूत्र, पृ० २८४ ईश्वरप्रणिधानं तस्मिन्परमगुरौ सर्वकर्मार्पणम्। - वही, पृ० २८४ क) नियमः परिमितकालः । - रत्नकरण्डश्रावकाचार, ३/४१ ख) नियमो नियतकालव्रतम् । - आत्मानुशासन, २२५ नियमा पडिमादयो अभिग्गहविसेसा। - दशवैकालिकसूत्र. २/४ पर चूर्णि भावशौचानुपरोध्येव द्रव्यशौचं बाह्यमादेयमिति तत्त्वदर्शिनः। - पातञ्जलयोगसूत्र. २/३२ पर यशो० वृ० बुभुक्षा देहकार्यं वा तपसो नास्ति लक्षणम्। तितिक्षा ब्रह्मगुप्त्यादिस्थानं ज्ञानं त तदवपुः ।। - अध्यात्मसार, ६/१८/१५८ विसयकसायविणिग्गहभावं कादूण झाणसज्झाए। जो भावदि अप्पाणं तस्स तवं होदि णियमेण।। - द्वाद्वशानुप्रेक्षा, ७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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