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________________ 200. १३. सयोगिकेवली गुणस्थान' I बारहवें गुणस्थान के अन्त में जैसे ही घातीकर्मों का नाश होता है, विकासगामी आत्मा को शीघ्र ही अपने विशुद्ध स्वरूप अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य अनन्तदर्शन और अनन्तसुख की प्राप्ति हो जाती है। जैसे पूर्णिमा की रात में चन्द्रमा की सम्पूर्ण कलायें प्रकाशमान होती हैं वैसे ही इस गुणस्थान में आत्मा की चेतना आदि सभी प्रमुख शक्तियाँ विकसित हो जाती हैं।' तेरहवें गुणस्थान की इस अवस्था को सयोगकेवली. ' सयोगिकेवलि' तथा सयोगिकेवलीजिन गुणस्थान' के नाम से भी चित्रित किया गया है। यहाँ 'केवल' पद से केवलज्ञान का ग्रहण हुआ है मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को जैनदर्शन में 'योग' कहा गया है। ' अतः मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों से युक्त जीव को सयोगी कहते हैं इसप्रकार जिस गुणस्थान में विशुद्ध ज्ञान प्राप्त कर लेने पर जीव में शारीरिक प्रवृत्तियाँ विद्यमान रहती हैं उसे 'सयोगकेवली' अथवा 'सयोगीकेवली' कहा जाता है, जो पातञ्जलयोगसूत्र सम्मत सम्प्रज्ञातसमाधि की अवस्था के समकक्ष माना जा सकता है। इस गुणस्थान में प्राप्त सर्वज्ञता की स्थिति की तुलना पातञ्जलयोग की विवेकख्याति से की जा सकती है। आ० हरिभद्र ने इस तुलना की ओर हमारा ध्यान भी आकृष्ट किया है। पातञ्जलयोगसूत्र में 'विवेकजज्ञान' से पूर्व प्रातिभज्ञान' की स्थिति मानी गई है। 'प्रातिभज्ञान' का ही दूसरा नाम 'तारकज्ञान' भी है। जैसे सूर्योदय से पूर्व आकाश में उसकी अरुण प्रभा का आविर्भाव होता है, वैसे ही विवेकख्याति के पहले तारकज्ञान का उदय माना गया है।" आ० हरिभद्र ने उक्त प्रातिभज्ञान की संगति केवलज्ञान से पूर्ववर्ती स्वानुभूति या स्वसंवेदन ज्ञान के साथ बिठाई है। इस प्रातिभज्ञान को योगज अदृष्टजनित बताया गया है। जैन दृष्टि में श्रुतज्ञान स्वानुभूति केवलज्ञान, यह क्रम स्वीकृत है जिसप्रकार रात्रि और दिन के मध्य में संध्या होती है उसीप्रकार श्रुतज्ञान और केवलज्ञान के मध्य उक्त 'प्रातिभज्ञान' होता है। उक्त प्रातिभज्ञान के संबंध में योगसूत्र के टीकाकारों एवं आ० हरिभद्र के निरूपण में पूर्ण समानता यहाँ उल्लेखनीय है । आ० हरिभद्र ने अपने योगदृष्टिसमुच्चय की स्वोपज्ञ व्याख्या में पातञ्जलयोग सम्मत तारकज्ञान और उक्त प्रातिभज्ञान की एकता का संकेत भी किया है । " > I १. २.. ३. ५. ६. ७. ८. - पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन षट्खण्डागम, १/१२/२१ गोम्मटसार (जीवकाण्ड). ६३. ६४: गुणस्थानकमारोह ८३ प्राकृतपञ्चसंग्रह १/२७ २६ बृहद्रव्यसंग्रह टीका, १३ पृ० ४३: योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/१६ दर्शन और चिन्तन, पृ० २७५ जैनसिद्धान्त पृ० ८३ षट्खण्डागम, १/१/२१: गोम्मटसार ( जीवकाण्ड). ६३. ६४: गुणस्थानक्रमारोह ८३ प्राकृतपञ्चसंग्रह १/२७ २६. योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/१६ तत्वार्थसूत्र श्रुतसागरीयवृत्ति १/१ तत्वार्थसूत्र ६/१ द्रष्टव्य : पातञ्जलयोगसूत्र ३/३३ पर व्यासभाष्य एवं भोजवृत्ति आ० हरिभद्र से पूर्ववर्ती जैनग्रन्थों में प्रातिभज्ञान को मतिज्ञान का ही एक भेद माना गया है। परवर्तीकाल में इसे अनुमान प्रमाण के अन्तर्गत स्वीकार किया गया। जैसे रत्नादि के प्रभाव एवं मूल्यादि को सामान्यजन न जान सकें, किन्तु अत्यन्त अभ्यास के कारण तद्विशेषज्ञ व्यक्ति उसके प्रभाव एवं मूल्यादि को तत्काल जान लें ऐसे ज्ञान को 'प्रातिभ' कहा गया है। आ० हरिभद्र ने पारम्परिक ज्ञान से भिन्न प्रातिभज्ञान का उल्लेख किया है। उपा० यशोविजय भी उन्हीं का अनुसरण करते प्रतीत होते हैं। द्रष्टव्य तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १/१३/३८८ ५० २१७ तत्त्वार्थसूत्र श्रुतसागरीयवृत्ति १२/१३ शास्त्रवार्तासमुच्चय ८ /६२ ६. योगदृष्टिसमुच्चय, गा० ८ पर स्वो० वृ०; अध्यात्मोपनिषद्, २/२ १०. योगदृष्टिसमुच्चय, गा० पर स्वो० ० Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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