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________________ 192 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन दिगम्बर जैन-परम्परा में प्रथम आगम के रूप में मान्य षट्खण्डागम में भी चौदह गुणस्थानों का वर्णन मिलता है।' षटखण्डागम की धवला टीका में 'गुणस्थान' के स्थान पर 'जीवसमास' शब्द का प्रयोग देखने में आता है। तदानुसार जीव चूंकि गुणों में रहता है, इसलिए उसे 'जीवसमास' कहते हैं। संक्षेप और ओघ गुणस्थान के पर्यायवाची शब्द माने गये हैं। औदायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक गुण तो जीव में कर्म की अवस्थाओं से सम्बन्धित होते हैं किन्तु पारिणामिक एक ऐसा गुण है जिसमें किसी कर्म की अपेक्षा नहीं होती, वह स्वाभाविक है। अतः इस गुण के कारण जीव को भी गुण कहा जाता है। सम्भव है कि गुण की मुख्यता से ही पश्चात्वर्ती साहित्य में 'जीवस्थान' की अपेक्षा 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग हुआ हो। इसप्रकार आगमों और पश्चात्वर्ती साहित्य में शाब्दिक भेद होने पर भ 'गुणस्थान' शब्द आगमों के 'जीवस्थान' के आशय को ही प्रकट करता गुणस्थान क्रमारोहण का मुख्य आधार आठ कर्मों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय - ये चार आत्मशक्ति को आच्छादित करने वाले (घाती) कर्म हैं और इनमें भी मोहनीयकर्म प्रधान एवं सघनतम है। जब तक मोहकर्म बलवान और तीव्रतम रहता है तब तक अन्य सभी कर्मावरण सबल एवं तीव्र बने रहते हैं। जैसे ही मोहनीयकर्म निर्बल होने लगता है वैसे ही अन्य कर्मावरणों की स्थिति भी निर्बल होती जाती है। अतः आत्मा के विकास में मुख्य बाधक मोह की प्रबलता और मुख्य सहायक मोह की निर्बलता है। मोहनीयकर्म की प्रबलता ही जीव की अज्ञानता का कारण है, जिसके परिणामस्वरूप जीव अपने यथार्थ स्वरूप को जानने में असमर्थ होता है। मोह के नष्ट होते ही सब घातीकर्म नष्ट हो जाते हैं और जीव को केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है तथा वह मुक्त हो जाता है। इसलिए आत्मा के विकास की क्रमागत अवस्थाएँ (गुणस्थानों का क्रम) मोह शक्ति की उत्कटता और मंदता तथा क्षीणता पर आधारित हैं। मोहनीयकर्म के कारण आत्मा तत्त्व की यथार्थ श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) और तदनकल प्रवृत्ति (सम्यक्चारित्र) नहीं कर पाता। मोह की प्रधान शक्तियाँ दो हैं, जिन्हें दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कहते हैं। दर्शनमोहनीय के कारण स्व-पर रूप का निर्णय (विवेक) नहीं हो सकता और चारित्रमोहनीय कर्म आत्मा को विवेक प्राप्त हो जाने पर भी तदनुसार प्रवृत्ति नहीं करने देता। व्यवहारतः वस्तु का यथार्थ बोध (दर्शन) होने पर उस वस्तु को प्राप्त करने या त्याग करने का प्रयास किया जाता है। आध्यात्मिक विकासगामी आत्मा भी इन दोनों मुख्य कार्यों में प्रवृत्त होता है -- स्वरूपदर्शन और तदनुसार प्रवृत्ति। दर्शनमोह रूप प्रथम शक्ति के प्रबल होने पर चारित्रमोह रूप दूसरी शक्ति भी १ षट्खण्डागम, १/१/६.२२.१/१/२७ २. जीवाः सम्यगासतेऽस्मिन्निति जीवसमासः। क्वासते (?) गुणेषु । - धवला, पुस्तक, १. पृ० १६१ (क संखेओ ओघोत्ति य, गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा......1- गोम्मटसार, (जीवकाण्ड), गाथा २ पृ०३ (ख) ओघेण अत्थि मिच्छाइट्ठी। - षट्खण्डागम, १/१/६ ४. धवला, पुस्तक,७ पृ० ६२, पंचाध्यायी, २/६६८ तत्त्वार्थसूत्र, १०/१; ज्ञानार्णव, २१/३७; दशाश्रुतस्कन्धसूत्र.५/१२ & It should be noted that the limitation of the self consists primarily in its forgetfulness of its true nature, which is due to the influx of the Mohniya or the deluding Karma in it. The inflow of the Mohniya prepares the self for the further absorption of other form of the Karma. - Jain Moral Doctrine, p. 68 तत्त्वार्थसूत्र, ८/६ तत्त्वार्थराजवार्तिक,८/६/२ वही, ८/६/३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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