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________________ योग और आचार अतः साधक को मोक्षमार्ग में उपस्थित होने वाले परीषहों को निभर्यतापूर्वक, जिनभगवान् की भक्ति में तल्लीन होकर आनन्दपूर्वक सहन करना चाहिए । यद्यपि परीषहों की संख्या के संबंध में संक्षेप में कम और विस्तार में अधिक की कल्पना की जा सकती है, तथापि त्याग के विकास के लिए जैन आगम एवं आगमोत्तरवर्ती साहित्य में विशेष रूप से बाईस परीषह बताए गये हैं, जिनके नाम हैं १. क्षुधा २. पिपासा, ३. शीत, ४. उष्ण, ५. दंशमशक, ६. अचेलकत्व, ७. अरति, ८. स्त्री, ६. चर्या, १०. निषद्या, ११. शय्या, १२. आक्रोश, १३. वध, १४. याचना, १५ अलाभ, १६. रोग, १७. तृणस्पर्श, १८. मल, १६. सत्कार, २०. प्रज्ञा, २१. अज्ञान और २२ अदर्शन ।' उक्त परिषहों को जानकर जो मुनि समत्वभाव से इनको सहन करता है, वही संवर-धर्म का आराधक होता है और कर्मों की निर्जरा करने में समर्थ होता है । जिस प्रकार जैन परम्परा में परीषहों को साधनामार्ग में विघ्न स्वरूप माना है, उसीप्रकार पातञ्जलयोग में भी योगसाधना के मार्ग में बाधक अन्तरायों का उल्लेख किया गया है। पतञ्जलि के अनुसार ये अन्तराय चित्तविक्षेप रूप हुआ करते हैं तथा संख्या में ६ हैं - व्याधि, स्त्यान ( चित्त की अकर्मण्यता), संशय, प्रमाद, आलस्य, विरति, भ्रान्ति-दर्शन (अविवेक), अलब्ध भूमिकत्व (समाधि की पूर्व भूमिकाओं की अप्राप्ति) और अनवस्थितत्व (चित्त की स्थिरता का अभाव ) । कभी-कभी इन नौ अन्तरायों के साथ-साथ विविध दुःख, इच्छाओं की अपूर्णता के कारण चित्त में विक्षोभ, शरीर में कम्पन एवं श्वास-प्रश्वास की अस्थिरता भी अन्तराय के रूप में उपस्थित होते हैं। ये सभी अन्तराय समाधि-साधना के विरोधी हैं, इसलिए अभ्यास और वैराग्य द्वारा इन पर विजय पाने अर्थात् निरोध करने का उपदेश दिया गया है। इ. जैनयोग और आचार का आधार : कर्मसिद्धान्त कर्म का अर्थ कर्म का शाब्दिक अर्थ काय, प्रवृत्ति या क्रिया है। जो कुछ भी जीव द्वारा किया जाता है वह 'कर्म' है। योगदर्शन में संस्कार के अर्थ में 'कर्म' शब्द का प्रयोग हुआ है। जैन परम्परा में 'कर्म' का क्रिया रूप अर्थ भावकर्म के रूप में मान्य है, किन्तु द्रव्य रूप में क्रिया द्वारा अजीव द्रव्य पुद्गल का आत्मा के संसर्ग में आकर आत्मा को बंधन में डालना है। जीव आत्मा के द्वारा कृत होने से वह 'कर्म' कहा जाता है । ५ जैन-परम्परानुसार 'कर्म' केवल मनुष्यकृत प्रयत्न ही नहीं है अपितु निःस्वभाव नियमन मात्र भी है। 'कर्म' वस्तुतः जड़ पदार्थ है और आत्मा के समान ही स्वाधीन एवं जीव-विरोधी द्रव्य है। जैनमतानुसार कर्म एक ऐसा विश्वव्यापी - जागतिक व्यापार है, जिसके कारण संसार चक्र प्रवाहित है । जगत की नैतिक सुव्यवस्था का मूल कारण कर्म सिद्धान्त है, जिसे प्रत्येक दर्शन स्वीकार करता है। जीव द्वारा जो कुछ भी कार्य किया जाता है उसका फल अवश्य उत्पन्न होता है, उसका नाश कथमपि नहीं होता और जिस फल का हम वर्तमान में भोग कर रहे हैं, वह पूर्व जन्म के किए गए कर्म का ही परिणाम है।" योग का आधार आचार है और आचार कर्म सिद्धान्त पर आधृत है । १. २. ३. ४. ५. ६. ७. 181 तत्त्वार्थसूत्र, ६/ २: उत्तराध्ययनसूत्र, २: योगशास्त्र, ३/१५२ पर स्वोपज्ञ वृ० पातञ्जलयोगसूत्र. १ / ३० दुःखदौर्मनस्यांगमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः । पातञ्जलयोगसूत्र, १ / ३१ अथैते विक्षेपाः समाधिप्रतिपक्षास्ताभ्यामेवाभ्यासवैराग्याभ्यां निरोद्धव्याः । - व्यासभाष्य १ / ३२ की अवतरणिका कर्मग्रन्थ, देवेन्द्रसूरि, भा० १, गा० १ उत्तराध्ययनसूत्र, ४ / ३ भारतीय दर्शन, बलदेव उपाध्याय, पृ० २२-२३ ( उपोद्घात) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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