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योग और आचार
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४. आदाननिक्षेप- शय्या व आसनादि उपकरणों तथा शास्त्र के उपकरणों को आंखों समिति
से प्रतिलेखन (देखकर) तथा प्रमार्जन करके सावधानीपूर्वक लेना
अथवा रखना। ५. उत्सर्ग या व्युत्सर्ग- जीव-जन्तुओं से रहित जमीन पर कफ, मलमूत्रादि का सावधानीसमिति'
पूर्वक त्याग करना। पतञ्जलि ने महाव्रतों के पालन के मूल में लोभ, क्रोध और मोह के सभी प्रकारों (२७-२७-२७) के प्रति प्रतिपक्ष भावना को समृद्ध करने की चर्चा की है। उसी के समानान्तर जैन-परम्परा में इन गुप्तियों और समितियों की चर्चा स्पष्टीकरण की दृष्टि से की गई है। (ग) द्वादशानुप्रेक्षा या द्वादशभावना
मोक्षमार्ग में प्रवृत्त साधक को शिथिलता, श्रान्ति अथवा क्लान्ति का अनुभव न हो, उसमें सदा स्फूर्ति बनी रहे, इस दृष्टि से जैन शास्त्रकारों ने अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन की प्ररूपणा की है। अनुप्रेक्षा का अर्थ है - गहन चिन्तन करना और मन, चित्त तथा चैतन्य को उस विषय में लीन करना, उन संस्कारों को दृढ़ करना। अनुप्रेक्षाओं का बार-बार चिन्तन-मनन करके साधक संस्कारों से अपनी आत्मा को भावित करता है, इसलिए अनुप्रेक्षाओं को भावना भी कहा जाता है। अनुप्रेक्षा और भावना दोनों शब्द एकार्थवाची हैं।
आ० शुभचन्द्र एवं हेमचन्द्र के मतानुसार समत्व के उपायभूत निर्ममत्व को जागृत करने के लिए भावशद्धि होनी आवश्यक है। अतः आत्म-परिणामों को विशुद्ध रखने के लिए वीतराग प्ररूपित भावनाओं का चिन्तन करना चाहिए। जिसप्रकार महावत उपद्रव से रक्षा करने के लिए बलवान हाथी को आलानस्तम्भ (हाथी को बांधने का खम्भा) से बांध कर रखता है, उसीप्रकार मुनिजन विषयों आदि से मन का संरक्षण करने तथा धर्मानुराग की वृद्धि हेतु भावनाओं को मन में बांधकर रखते हैं। अर्थात् मन से निरन्तर उनका चिन्तन करते हैं। आ० शुभचन्द्र ने अनित्यादि बारह भावनाओं को मोक्ष रूप प्रासाद की सोपान पंक्ति के समान मानते हुए इनकी प्रशंसा की है।
द्वादशभावनाओं का स्वरूप इस प्रकार है -
१.
अनित्य-भावना तीनों लोकों में विद्यमान चेतन और अचेतन सभी पदार्थ अनित्य हैं।
धन, वैभव, सत्ता, परिवार आदि सब क्षणभंगुर हैं. ऐसा पुनः-पुनः चिंतन करना।
१. ज्ञानार्णव, २८/१२.१३; योगशास्त्र, १/३६ २. ज्ञानार्णव, १८/१४; योगशास्त्र, १/४०
(क) अणुप्पेहा णाम जो मणसा परियट्टेइ णो वायाए। - दशवैकालिकचूर्णि, पृ० २६ (ख) शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा।- सर्वार्थसिद्धि. ६/२/४०६ (ग) परिज्ञातार्थस्य एकाग्रेण मनसा यत्पुनः पुनः अभ्यसनं अनुशीलनं सानुप्रेक्षा। -कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, ४६६ पासनाहचरिय, ५/४६० ज्ञानार्णव, २/४.५, योगशास्त्र, ४/५५ ज्ञानार्णव. २/६
ज्ञानार्णव, २/७ ८. ज्ञानार्णव. २/८-१६०; योगशास्त्र, ४/५७-१०६
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