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________________ योग और आचार 153 मृषावाद (असत्य) में परिगणित किया गया है। इसके अतिरिक्त कन्यालीक, गोलीक, भूमिलीक,न्यासापहार, कूटसाक्षी आदि को भी स्थूल मृषावाद के अन्तर्गत रखा गया है। आ० हेमचन्द्र ने इन सब को लोकविरुद्ध विश्वासघात पैदा करने वाले तथा पुण्य के नाशक बताते हुए श्रावक को इनसे बचने का उपदेश किया स्थूल मृषाकादविरमण या सत्याणुव्रत के अतिचार १. सहसा-अभ्याख्यान बिना विचार किए किसी पर दोषारोपण करना। २. रहस्य-अभ्याख्यान दूसरे के द्वारा एकान्त में किए गए व्यवहार को अन्य जनों से कहना, किसी की झूठी प्रशंसा करना या झूठी निन्दा-चुगली करना अथवा स्त्री या पुरुष को एकान्त में एक दूसरे के प्रति भ्रान्तिजनक बातें कहना। ३. स्वदार-मन्त्रभेद अपनी स्त्री के द्वारा विश्वस्त रूप से कह गये वचनों को दूसरे पर प्रकट करना। ४. मृषोपदेश असत् अर्थात् शास्त्र व धर्म के विरुद्ध उपदेश देकर विपरीत मार्ग पर प्रवृत्त कराना। ५. कूटलेखकरण झूठे लेख लिखना, झूठे दस्तावेज बनाना, दूसरे की मुहर या हस्ताक्षर बनाकर असमीन प्रवृत्ति करना। ३. स्थूल अदत्तादानविरमण या अस्तेयाणुव्रत ___ श्रावक के लिए निरूपित इस तृतीय अणुव्रत में बिना दी हुई दूसरे की वस्तु को ग्रहण न करने का निर्देश दिया गया है। यह अणुव्रत 'अचौर्याणुव्रत' के नाम से भी प्रसिद्ध है। कषायभाव से दूसरे की वस्तु उसकी आज्ञा के बिना लेना 'स्तेय' या 'चौर्यकर्म' कहलाता है। इसके विपरीत आचरण करना अस्तेय या अचौर्यकर्म माना जाता है। आ० हेमचन्द्र के अनुसार रास्ते में चलते समय गिरी हुई, उसके मालिक के भूल जाने से रखी हुई, खोई अथवा नष्ट हुई, मालिक द्वारा धरोहर के रूप में रखी परन्तु विस्मृत हुई, योग्य जमीन में गाड़ी हुई वस्तु को बिना किसी की अनुमति के न ग्रहण करना 'अस्तेयाणुव्रत' है। लोक में धन को प्राणों से भी अधिक प्रिय समझा जाता है। धन की रक्षा के लिए लोग अपने प्राण तक देने को तैयार होते हैं । इसलिये शास्त्रकारों ने धन को बाह्य प्राण माना है। दूसरे के धन का हरण करने से इस लोक तथा परलोक (जन्मान्तर) के धर्म, धैर्य, मति, कार्य-अकार्य रूप भावधन का भी हरण हो जाता है। वह स्वयं पाप बंध करके अपने आत्म-गुणों रूप प्राणों का घात करता है। चौर्यकर्म से इस भव में तो राजदण्ड, जातिदण्ड, निन्दादण्ड ( 1) आदि भोगने ही पड़ते हैं, साथ ही अगले जन्मों में १. २. * तायार्थसूत्र, ७/२१ सागारधर्मामृत ४/३६: उपासकदशांगसूत्र, १/६, पर अभयदेव वृ०: श्रावकप्रज्ञप्ति. २६०: योगशास्त्र. २/५४ योगशास्त्र.२/५५ तत्त्वार्थसूत्र, ७/२१:. उपासकदशांगसूत्र, १/४६: सागारधर्मामृत, ४/४५: पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, १८४; अमितगतिश्रावकाचार, ७/४. श्रावकप्रज्ञप्ति, २६३: धर्मबिन्दु. ३/२४, योगशास्त्र, ३/६१ अदत्तादानं स्तेयं । - तत्त्वार्थससूत्र,७/१० योगशास्त्र.२/६६ ज्ञानार्णव. १०/३: योगशास्त्र, १/२२ योगशास्त्र.२/६७ ज्ञानार्णव, १०/४-६ * في نا Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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