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________________ 136 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन जिसकी व्याख्या करते हुए भाष्यकार व्यास ने “मैं न होऊँ, “ऐसा न हो इस उदाहरण को प्रस्तुत किया है।' इस अभिनिवेश की पुष्टि मुख्य रूप से एकान्तवाद से हुआ करती है, जिसके उन्मूलन के लिए जैनाचार्यों ने अनेकान्तवाद की स्थापना की। इसकी स्थापना का एकमात्र उद्देश्य अभिनिवेश रूपी वत्ति का निरोध है, ऐसा समझना चाहिए। __ अनेकान्तवाद जैन दर्शन की समस्त दर्शन जगत् को एक महत्त्वपूर्ण देन है। यह जैन दर्शन का मौलिक चिन्तन है, जिसमें विभिन्न धर्मों और दर्शनों में निहित सत्यों को स्वीकार कर उनमें परस्पर समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया गया है। अनेकान्तवाद वस्तु के व्यापक और सार्वभौमिक स्वरूप को जानने का वह प्रकार है, जिसमें विवक्षित धर्म को जानते हुए भी अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जाता, उन्हें गौण या अविवक्षित कर दिया जाता है। इससे सम्पूर्ण वस्तु का मुख्य-गौण भाव से स्पर्श हो जाता है अर्थात् वस्तु के सभी अंशों का ज्ञान हो जाता है। 'अनेकान्तवाद' के 'अनेकान्त' शब्द पर विचार करने से अनेकान्त शब्द में 'अनेक' और 'अन्त' इन दो शब्दों का संयोग दिखाई देता है। 'अन्त' शब्द का व्युत्पतिगत अर्थ है-अम्यते गम्यते-निश्चीयते इति अन्तः धर्मः । न एकः अनेकः । अनेकश्चासौ अन्तश्च इति अनेकान्तः । अर्थात् वस्तु में अनेक धर्मों के समूह को मानना अनेकान्त है। अनेकान्त की परिभाषा एक जैनाचार्य ने इस प्रकार दी है - अनेके अन्ताः भावाः अर्थाः सामान्यविशेष-गुणपर्यायाः, यस्य सोऽनेकान्तः अर्थात् जिसमें अनेक अर्थ, भाव, सामान्य, विशेष, गुण, पर्याय रूप से पाये जायें, वह अनेकान्त है। 'वाद' का अर्थ है - सिद्धान्त, चिन्तन, या कथनशैली। इसप्रकार अनेकान्तवाद का अर्थ हुआ - पदार्थ का भिन्न-भिन्न दृष्टियों/अपेक्षाओं से पर्यालोचन करना। वस्तु का स्वरूप जैनदर्शन किसी भी पदार्थ को एकान्त नहीं मानता। उसके मत में पदार्थ मात्र ही अनेकान्तात्मक है। केवल एक ही दृष्टि से किया गया पदार्थ-निश्चय जैनदर्शन में अपूर्ण माना जाता है। जैनदर्शन के मतानुसार वस्तु का स्वरूप विराट है। उसमें सत्ता-असत्ता, भाव-अभाव, नित्यता-अनित्यता, परिणामिताअपरिणामिता आदि अनेक प्रतिद्वन्द्वी परस्पर विरोधी-धर्म विद्यमान हैं। यदि वस्तु में रहने वाले अनेकधर्मों में से किसी एक ही धर्म को लेकर उसका (वस्तु का) निरूपण किया जाए और उसी को सर्वांशतया सत्य मान लिया जाए तो यह विचार अपूर्ण एवं भ्रान्त होगा क्योंकि जो विचार एक दृष्टि से सत्य समझा जाता है तद्विरोधी विचार भी दृष्ट्यन्तर से सत्य होते हैं। उदाहरणार्थ - एक व्यक्ति पिता, पुत्र, भाई आदि भिन्न-भिन्न संज्ञाओं से पुकारा जाता है, जिससे प्रतीत होता है कि उसमें पितृत्व, पुत्रत्व तथा भ्रातत्व आदि अनेक धर्मों की सत्ता विद्यमान है। जिसप्रकार भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से एक ही व्यक्ति में पितृत्व, पुत्रत्व आदि की कल्पना होती है, उनमें कोई विरोध नहीं माना जाता, उसीप्रकार एक ही वस्तु में नित्यानित्यादि अनेकान्त धर्म मानने में भी कोई विरोध नहीं है। वस्तुतः पदार्थ का स्वरूप एक समय में एक ही शब्द के द्वारा सम्पूर्णतया नहीं कहा जा सकता और न ही वस्तु में रहने वाले अनेक धर्मों में से किसी एक ही १. सर्वस्य प्राणिन इयमात्माशीर्नित्या भवति, “गा न भूवं भूयासमिति'। न चाननुभूतमरणधर्मकस्यैषा भवत्यात्माशीः । - व्यासभाष्य, पृ० १८५ २. रत्नाकरावतारिका, पृ८६ 'अनेकान्तवाद'. मुनि श्री मोहनलाल शार्दूल, तुलसीप्रज्ञा, खण्ड ८, अंक ४-६. पृ० १७ कथं विप्रतिषिद्धानां न विरोधः समुच्चये। अपेक्षाभेदतो हन्त सैव विप्रतिषिद्धता ।। भिन्नापेक्षा यथैकत्र पितृपुत्रादिकल्पना । नित्यानित्याद्यनेकान्तः तथैव न विरोत्स्यते।। अव्याप्यवृत्तिधर्माणां यथावच्छेदकाश्रया। नापि ततः परावृत्तिः तत् किं नात्र तथैक्ष्यते।। - अध्यात्गोपनिषद. ३८-४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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