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________________ योग के अधिकारी, प्राथमिक योग्यता एवं आवश्यक निर्देश 115 प्राणघातक द्रव्यों के संयोग से बनाया हुआ 'गर' नामक विष भक्षणकर्ता को कालान्तर में धीरे-धीरे मार डालता है, उसी प्रकार गरानुष्ठान भी कालान्तर में (जन्मान्तर में) आत्मा का हनन कर देता है। प्रथम दोनों अनुष्ठान संसार की वृद्धि करने वाले, नरक तथा तिर्यञ्चगति में ले जाने वाले तथा अनेक प्रकार के महान अनर्थ, क्लेश और उपद्रव कराने वाले होते हैं। इसलिए जिनेश्वरों ने सर्वत्र निदान सहित इनका निषेध करने की आज्ञा दी है। ३. अननुष्ठान प्रणिधानादि के अभाव में शुद्ध अध्यवसाय रहित होकर, संमूर्छिम जीवों की मानसिक शून्यता के समान सूने मन से तथा उचित-अनुचित का विचार करने में असमर्थ होकर जो क्रियायें की जाती हैं, उन्हें 'अननुष्ठान' कहते है। इन्हें इसलिए 'अननुष्ठान' कहते हैं क्योंकि ये क्रियायें की हुई होकर भी न किये हुए के बराबर होती हैं। इस अननुष्ठान रूप अनुष्ठान में ओघसंज्ञा तथा लोकसंज्ञा, इन दो कारणों से प्रवत्ति होती है। विशेषता रहित सर्वसाधारण का बोध कराने वाली सामान्य ज्ञान रूप दृष्टि 'ओघसंज्ञा' कहलाती है तथा सूत्र-कथित निर्दोष मार्ग की अपेक्षा से रहित साधारण मनुष्य जैसी दृष्टि 'लोकसंज्ञा' कहलाती है। इस अनुष्ठान में व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कुछ न कुछ क्रियाएँ करता रहता है। परन्तु न उसकी इन क्रियाओं के प्रति श्रद्धा होती है और न विवेक । अतः गतानुगतिकता अर्थात् सूत्रोक्त आचाररहित एवं ओघसंज्ञा से अनुष्ठान किया जाता है, वह 'अननष्ठान' कहलाता है, और वह मोक्ष का साधक नहीं होता, इसलिए त्याज्य है। कहा जाता है कि इस अनुष्ठान में शारीरिक परिश्रम अत्यधिक होने से अकामनिर्जरा होती है, अकामनिर्जरा से सांसारिक सुख की प्राप्ति होती है, अतः यह त्याज्य है। ४. तद्धेतु अनुष्ठान यह अनुष्ठान धार्मिक क्रियाओं के प्रति अनुराग होने से किया जाता है। इसमें शुभ-भावों का अंश यथाकुद्रव्य संयोगजनित गरसंज्ञितम् । विषं कालान्तरे हन्ति तथेदमपि तत्त्वतः ।। - अध्यात्मसार, ३/१०/६ निषेधायानयोरेव विचित्रानर्थदायिनोः । सर्वत्रैवानिदात्वं जिनेन्द्रैः प्रतिपादितम।। - वही. ३/१०/७ बिना गर्भ से उत्पन्न होने वाले जीव सम्मर्छन कहलाते हैं । (क) अनाभोगवतश्चैतदननुष्ठानमुच्यते । संप्रमुग्ध मनोऽस्येति ततश्चैतद् यथोदितम् ।। - योगबिन्दु. १५८ (ख) प्रणिधानाधभावेन कर्मानध्यवसायिनः ।। संमूर्छिम-प्रवृत्ताभमननुष्ठानमुच्यते।। - अध्यात्मसार, ३/१०/८ (ग) अनाभोगवतः कुत्रापि फलादावप्राणिहितमनसः एतद् अनुष्ठानं 'अननुष्ठान अनुष्ठानमेव न भवतीत्यर्थः । - योगविंशिका. गा० १२ पर यशो० वृ० (घ) समोहादननुष्ठान सदनुष्ठानरागतः। - द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १३/१३ ओघसज्ञाऽत्र सामान्यज्ञानरूपा निबन्धनम् । लोकसज्ञा च निर्दोषसूत्रमार्गानपेक्षिणी ।। - अध्यात्मसार,३/१०/६ न लोक नाऽपि सूत्रं नो गुरुवाचमपेक्षते। अनध्यवसितं किञिचत् कुरुते चौघसंज्ञया।। - वही ३/१०/१०.११ तरगाद् गत्यानुगत्या यत् क्रियते सूत्रवर्जितम्।। ओघतो लोकतो वा तदननुष्ठानमेवहि।। - वही, ३/१०/१५ अकागनिर्जरागत्व कायक्लेशादिहोदितम्। सकागनिर्जरातु स्यात् सोपयोगं प्रवृत्तितः ।। - वही, ३/१०/१६ ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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