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________________ योग के अधिकारी, प्राथमिक योग्यता एवं आवश्यक निर्देश ३४. काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य आदि छः आन्तरिक शत्रुओं का त्याग करने में तत्पर होना । ३५. इन्द्रिय- विजेता होना । उक्त ३५ गुणों से युक्त जीव ही विशिष्ट गृहस्थधर्म की भूमिका तक पहुँच कर श्रावक बनने के योग्य होता है । उसमें योग मार्ग पर चलने की योग्यता आ जाती है। अतः इन ३५ गुणों को गृहस्थ-धर्म की नींव या आधारभूमि समझना चाहिये । आ० हेमचन्द्र ने स्वंय लिखा है - "गृहि धर्माय कल्पते" ।' इन गुणों को जो धारण करता है, वह सद्गृहस्थ की भूमिका पर प्रतिष्ठित होता है। अतः गृहस्थधर्म अंगीकार करने से पूर्व उपरोक्त ३५ गुणों के द्वारा जीवन को शुद्ध करना आवश्यक है। इन सर्वगुणों से युक्त मार्गानुसारी जीव ही श्रावक बनकर, अणुव्रत-साधना का अधिकारी बनता है। (ग) साधक के लिए निर्दिष्ट अनुष्ठान 'चारित्री' व्यक्ति सदनुष्ठानों में प्रवृत्त रहता है और असदनुष्ठानों से बचने का प्रयत्न करता है। जैनदृष्टि भावशुद्धि को अधिक प्रमुखता देती है, इसलिए प्रत्येक अनुष्ठान की प्रशस्तता / अप्रशस्तता का आधार भावों प्रशस्तता / अप्रशस्तता है। इसी दृष्टि से आ० हरिभद्र ने साधक की स्थिति विशेष के आधार पर अनुष्ठानों की प्रशस्तता / अप्रशस्तता का निर्धारण किया है । अनुष्ठान के प्रकार शास्त्रों में अनेक प्रकार के अनुष्ठानों का वर्णन मिलता है, परन्तु वे सभी एक जैसे नहीं होते। न ही उनका प्रभाव एक जैसा होता है और न ही सभी साधकों के लिए सभी अनुष्ठान उपयोगी सिद्ध होते हैं। इसीलिए आ० हरिभद्र ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जिसप्रकार एक ही भोज्य पदार्थ का एक रुग्ण व्यक्ति द्वारा सेवन किया जाए और उसी पदार्थ को एक स्वस्थ व्यक्ति सेवन करे तो दोनों की परिणति एक जैसी न होकर भिन्न होती है, उसी प्रकार एक ही अनुष्ठान, कर्ता के भेद से भिन्न-भिन्न प्रकार का हो जाता है और भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को पृथक्-पृथक् फल प्रदान करता है। फल प्राप्ति का आधार आंतरिक आशय और तत्त्वावबोध है। अतः उक्त अनुष्ठान कैसा है, उसका बाह्यदृष्टि से विचार करना चाहिये । आ० हरिभद्र ने योगबिन्दु व योगविंशिका में पांच प्रकार के अनुष्ठानों का वर्णन किया है। :- १. विषानुष्ठान, २. गरानुष्ठान, ३. अननुष्ठान, ४. तद्धेतु अनुष्ठान, ५. अमृतानुष्ठान । इनमें से पहले तीन असदनुष्ठान हैं, जबकि अन्तिम दो सदनुष्ठान हैं। इनमें से भी अन्तिम अनुष्ठान मोह रूपी उग्रविष का नाशक होने से श्रेष्ठ कहा गया है। तीन असदनुष्ठान अचरमावर्ती जीवों को ही होते हैं, क्योंकि अचरमावर्ती जीवों की संसार १. २. ३. ४. ५. अन्तरंगारिषड्वर्ग परिहार-परायणः । वशीकृतेन्द्रियग्रामो गृहिधर्माय कल्पते ।। - योगशास्त्र, १ / ५६ भावप्राभृत (अष्टपाहुड) गा० २-७ एकमेवानुष्ठानं कर्तृभेदेन भिद्यते । सरुजेतरभेदेन भोजनादिगतं यथा ।। - योगबिन्दु, १५३: द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १३/८ (क) इत्थं चैतद् यतः प्रोक्तं सामान्येनैव पंचधा । विषादिकमनुष्ठानं विचारेऽत्रैव योगिभिः || 113 विषं गरोऽननुष्ठानं तद्धेतुरमृतं परम् । गुर्वादिपूजानुष्ठानमपेक्षादिविधानतः ।। - योगबिन्दु, १५४ १५५ (ख) विषं गर्राऽननुष्ठानं तद्धेतुरमृतं परम् गुरुसेवाद्यनुष्ठानमिति पंचविधं जगुः ।। - अध्यात्मसार, ३ / १० / २ द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १३/११ द्वयं हि सदनुष्ठानं त्रयमत्रासदेव च । तत्रापि चरमं श्रेष्ठं मोहोग्रविषनाशनात् ।। - अध्यात्मसार, ३/१०/२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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