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________________ 104 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन क्रियावञ्चकता है। सत्पुरुषों का सुयोग प्राप्त होने पर साधक की स्थिति में इतना परिवर्तन आ जाता है कि उसकी क्रियाये पारमार्थिक हो जाती है। परिणामस्वरूप उसके महापापो का ६ ३. फलावञ्चक सत्पुरुषों के उपदेश से तो और भी अधिक लाभ होता है। विद्वानों का अभिमत है कि जिन सत्पुरुषों का सान्निध्य साधक को प्राप्त हुआ है उनके उपदेशानुसार धार्मिक-क्रियायें करने से उत्तरोत्तर उत्तम योगों का फल प्राप्त होता है। ऐसे साधक को फलावञ्चक कहा जाता है। प्रवृत्तचक्रयोगी सर्वप्रथम आद्य योगावञ्चक स्थिति को प्राप्त करता है। इसकी प्राप्ति के पश्चात् उसे क्रियावञ्चक और फलावञ्चक-साधना की स्थितियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती है। उक्त त्रिविध अवञ्चक ही योग-साधना का अभ्यास करने के अधिकारी माने गये हैं। (घ) निष्पन्नयोगी जो साधक योग-निष्पन्न अथवा योग-सिद्ध हो गये हों, अर्थात् जिनकी योगसाधना समाप्त हो गई हो ऐसे योगी निष्पन्नयोगी या सिद्धयोगी कहलाते हैं। ये योगसिद्धि के निकट होते हैं। अतः इन्हें पुनः धर्मव्यापार में प्रवृत्त होने की कोई आवश्यकता नहीं होती। दूसरे शब्दों में सत्यदर्शी (द्रष्टा) के लिए सत्य-असत्य, कर्त्तव्य-अकर्तव्य का निर्देश आवश्यक नहीं रहता / आचारांग में भी कहा गया है - “उद्देसो पासगस्स पत्थि। ६ ___ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि चार प्रकार के योगियों में केवल कुलयोगी और प्रवृत्तचक्रयोगी ही योग-साधना के अधिकारी हैं। गोत्रयोगी नाममात्र का ही योगी होता है। आत्म-परिणामों के मलिन होने से उसमें योग का अभ्यास करने की योग्यता का अभाव होता है। निष्पन्नयोगी पहले ही अपना योगाभ्यास पूर्ण कर चुका होता है, इसलिए उसे योग का अधिकारी नहीं कहा जा सकता। ३. योग-साधना प्रारम्भ करने से पूर्व आवश्यक तैयारी अ. पातञ्जलयोग-मत योग-साधना की क्षमता रखते हुए भी प्रत्येक प्राणी को योग-साधना प्रारम्भ करने से पूर्व विशेष प्रयत्न १ २. तेषामेव प्रणामादि-क्रियानियम इत्यलम् । क्रियावचंकयोग: स्यान्महापापक्षयोदयः।। - योगदृष्टिसमुच्चय, २२०: द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १६/३० फलावंचकयोगस्तु सद्भ्यः एव नियोगतः । सानुबन्धफलावाप्तिधर्मसिद्धौ सतां मता।। - योगदृष्टिसमुच्चय, २२१: द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका. १६/३१ आद्यावञ्चक-योगाप्त्या तदन्यद्वयलाभिनः । एतेऽधिकारिणो योगप्रयोगस्येति तद्विदः ।।- योगदृष्टिसमुच्चय, २१३ एवं द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १६/२४ (क) निष्पन्नयोगिनां तु सिद्धिभावादिति।- योगदृष्टिसमुच्चयं, २०६ स्वो० वृ० (ख) सिद्धेर्निष्पन्नयोगस्य नोद्देशः पश्यकस्य यत् । -द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका. १६/१६ (ग) तथा सिद्धेः सामर्थ्य योगत एवं कार्यनिष्पत्तेः निष्पन्नयोगस्यासंगानुष्ठानप्रवाहप्रदर्शनेन सिद्धयोगस्यायं शास्त्रेण नाधीयते। - वही १६/१६, स्वो० वृ० अद्यस्मात् पश्यकस्य स्वत एव विदितवेद्यस्य ।। उद्दिश्यत इत्युदेशः सदसत्कर्तव्याकर्तव्यादेशो नास्ति ।। - वही आचारांगसूत्र २/७३. उद्धृत : द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका,१६/१६ स्वो० वृ० (क) कुलप्रवृत्तचक्रा ये त एवस्याधिकारिणः । योगिनो न तु सर्वेऽपि तथा सिद्धयादि-भावतः ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, २०६ (ख) शास्त्रेणाधीयते चायं नासिद्धेर्गोत्रयोगिनाम् । सिद्धेर्निष्पन्नयोगस्य नोद्देशः पश्यकस्य यत् ।। -द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका १६/१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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