________________
प्राक्कथन
जीवन के सुषुप्त एवं बिखरे हुए कणों को समायोजित कर सुव्यवस्थित एवं आनन्दमय जीवन व्यतीत करने की चिन्तनपरक मानवीय प्रवृत्ति ने विभिन्न विचारधाराओं को जन्म दिया. जो विकास की दष्टि से दो भागों में विभक्त है - वैदिक और अवैदिक। वैदिक विचारधारा में वेद को आधार मानकर जीवनदर्शन की व्याख्या करने वाले सांख्य, योग, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा आदि तथा अवैदिक विचारधारा में चार्वाक, जैन और बौद्ध दर्शन समाविष्ट हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में केवल योग और जैन विचारधारा का अध्ययन किया गया है। ___ आत्मविकास हेतु प्रचलित आध्यात्मिक साधना-पद्धतियों में 'योग' महत्वपूर्ण है, जिसे सभी दर्शनों ने किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है। दार्शनिक मत-मतान्तरों में भिन्नता होने पर भी वेदबाह्य बौद्ध,
जैन आदि दर्शन योग-साधना पर उतनी ही आस्था रखते रहे हैं जितनी वेद पर श्रद्धा रखने वाले दर्शन। इस दृष्टि से भारतीय दर्शनशास्त्र के षड्दर्शनों में योगदर्शन' को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। प्राचीन ऋषियों एवं मुनियों द्वारा तत्त्व-साक्षात्कार हेतु स्वानुभव के आधार पर अन्वेषित योग की परम्परा साधना के रूप में प्रागैतिहासिक काल से ही चली आ रही है। योगविषयक अनेक महत्वपूर्ण प्रसंग वेद, उपनिषद, महाभारत, गीता, योगवासिष्ठ आदि ग्रन्थों में भी प्राप्त होते हैं। परन्तु योगसाधना को 'दर्शन' के रूप में मान्यता दिलाने का श्रेय महर्षि पतञ्जलि को है, क्योंकि उन्होंने योग की विभिन्न प्रणालियों का समन्वय करके उन्हें सैद्धान्तिक रूप से सूत्रशैली में निबद्ध कर शास्त्र रूप प्रदान किया। उनका यह योगशास्त्र ही आज 'योगदर्शन' के नाम से प्रतिष्ठित है। वर्तमान में योगदर्शन का प्रारम्भ भी पतञ्जलि के योगसूत्रों से ही माना जाता है। अतः योगदर्शन का प्रतिपादक ग्रन्थ 'पातञ्जलयोगसत्र' ही है।
आज पातञ्जलयोग जितना प्रसिद्ध है, उतना जैनयोग नहीं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जैन-परम्परा में भी वैदिक-परम्परा के समान ही विपुल योगसाहित्य की रचना हुई थी, परन्तु वह आज सर्वांशतः उपलब्ध नहीं है। जैनयोग के बीज अवश्य जैनागमों में यत्र-तत्र बिखरे हुए दिखाई देते हैं परन्तु उससे जैनयोग का व्यवस्थित रूप प्रकट नहीं होता। वस्तुतः जैनयोग-साधना का व्यवस्थित व सर्वांगीण स्वरूप प्रस्तुत करने वाले ग्रन्थ लिखने की परम्परा ८वीं शती में प्रारम्भ हुई और इसका श्रेय आचार्य हरिभद्रसूरि को है। उन्होंने जैनागमों में यत्र-तत्र बिखरे हुए योग सम्बन्धी तथ्यों को संकलित कर पातञ्जलयोगसाधना के अनुरूप ढालने का प्रयास किया। परवर्ती जैनाचार्यों ने सहर्ष उनका अनुकरण किया। उन आचार्यों में आचार्य शुभचन्द्र, आचार्य हेमचन्द्रसूरि एवं उपाध्याय यशोविजय के नाम विशेष रूप से
नीय हैं। परवती काल में भी अध्यात्म-साधना से सम्बन्धित साहित्य की रचना हुई, किन्तु उससे जैनयोग-साधना का स्वरूप पूर्णतः परिलक्षित नहीं होता। २०वीं शती में 'जैनयोग' नाम से पाश्चात्य विद्वानों ने कुछ लिखने का प्रयास किया, परन्तु उसमें जैनयोग विषयक सामग्री नाममात्र भी नहीं है। अपितु उसमें श्रावक के १२ व्रतों का ही विश्लेषण किया गया है। वर्तमानकाल में भी कुछ भारतीय विद्वानों एवं जैन मुनियों ने जैनयोग-साधना का तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रयास किया है जो प्रशंसनीय तो है, परन्तु उससे न तो जैनयोग का व्यवस्थित एवं सर्वांगीण स्वरूप प्रकट होता है और न ही हरिभद्रादि। जैनाचार्यों द्वारा प्रवाहित विचारसरणि की स्पष्ट व विस्तृत जानकारी मिलती है। इन जैनाचार्यों की यह विशेषता है कि इन्होंने जैनयोग-साधना को विविध परिप्रेक्ष्यों एवं विविध रूपों में निरूपित करते हुए पातञ्जलयोग-परम्परा के साथ समन्वयात्मक सम्बन्ध स्थापित करने का अद्वितीय प्रयास किया, जो सराहनीय है। वस्तुतः उक्त चारों आचार्य जैनयोग-साधना के आधारस्तम्भ हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org