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________________ १. योग के अधिकारी भारतीय धर्मों की यह अवधारणा है कि परमात्मपद प्राप्त करने के अधिकारी वे ही लोग हैं जिन्होंने मोह, अभिमान एवं विषयासक्ति आदि पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली है, जो सांसारिक कामनाओं से रहित हैं और अध्यात्म साधना में सतत संलग्न रहते हैं। किन्तु उक्त स्थिति सहजतया सभी प्राणियों को प्राप्त नहीं होती। विविध योनियों में जन्म-मरण के अनन्त आवतों को पार करते हुए प्राणी जब इस भारतभूमि में, जो स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग के समान है, और जहाँ जीव देवयोनि से मनुष्य योनि में आते हैं, तब उन्हें यहाँ जन्म लेकर अध्यात्म साधना के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने का अवसर सुलभ होता है, अन्यथा नहीं। सभी मनुष्य एक जैसे स्वभाव के नहीं होते। सात्विक गुणों से अलंकृत व्यक्ति ही मोक्ष-साधना में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। योग-साधना का अधिकारी कौन व्यक्ति हो सकता है, इस संबंध में शास्त्रों में पर्याप्त विचार-विमर्श किया गया है। प्रमुखतः अध्यात्म-साधना की पात्रता के लिए जो आवश्यक बातें बताई गई हैं, उनमें तीव्र वैराग्यः श्रद्धा, आत्मतत्व एवं मोक्ष प्राप्ति की जिज्ञासा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त इन्द्रियसंयम की शक्ति को भी योग-साधक के लिए आवश्यक बताया गया है ।" अ. पातञ्जलयोग-मत अध्यात्म-साधना का लक्ष्य है - चित्तवृत्तिनिरोध । और वह योग के अभ्यास व वैराग्य के बिना सम्भव नहीं है। यह (अभ्यास और वैराग्य) सब प्राणियों में सम्भव भी नहीं होता। जो मनुष्य अभ्यास और १. २. ३. ४. jr ut g j w ६. तृतीय अध्याय योग के अधिकारी, प्राथमिक योग्यता एवं आवश्यक निर्देश ७. ८. निर्मानमोह जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः । द्वन्द्वैर्विगुक्ताः सुखदुःखसर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ।। गीता (श्रीमद्भगवद्गीता) गीताप्रेस, १५/५ (क) गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे। स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ।। - - विष्णुपुराण, २/३/२४: तुलना : स्थानांगसूत्र, ३/३ (ख) भागवतपुराण ५/१७/११ (ग) विष्णुपुराण २/४/२२ (क) इयं हि योनिः प्रथमा यां प्राप्य जगतीपते । आत्मा वै शक्यते त्रातुं कर्मभिः शुभलक्षणैः ।। - महाभारत शान्तिपर्व, २६७/३२ (ख) भागवतपुराण, १९१/६/२९ ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः । गीता, ६/३ पर नीलकण्ठी टीका गीता, ४/३८. ३६ वही, ६ / ३६ योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः पातञ्जलयोगसूत्र १/२ अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः । - वही, १/१२ Jain Education International - - गीता, १४/१८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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