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________________ स्थानकवासी संप्रदाय का जीवनानुभव (८१) उपस्थित लोगों ने उनका व्याख्यान ध्यानपूर्वक सुना। फिर कोन्फेन्स की कार्यवाही शुरू हुई और नियमानुसार भाषण प्रादि होते रहे आगत अतिथि विशेष मोरबी नरेश का भी बहुत सम्मान किया गया। जिसके प्रत्युतर में उन्होने भी कुछ अाभार प्रदर्शित बातें कही। उस समय लाउडस्पीकर नहीं थे जिससे सभा में कोलाहल के कारण लोगों को कुछ कम हो सुनाई देता था। हम सावु लोग समय होने पर वहां से उठकर अपने-अपने धर्म स्थानों में पहुँच गये। कोन्मन्स की कार्यवाही दोपहर के बाद शुरू होतो थी और सुबह के समय घण्टा-डेड घण्टा साधुओं के व्याख्यान उनके धर्म स्थानकों में होते थे। दूसरे दिन दोपहर को पहले दिन की तरह ही साधु लोग सभा के पाण्डाल में पहुँच गये थे । इस दिन शिष्टाचार के खयाल से श्रावकों ने हमारे सम्प्रदाय के साधुओं को धर्मोपदेश के लिए विनती को तद्नुसार नन्दलालजो स्वामी जो हमारे सम्प्रदाय में मुखिया थे तथा व्याख्यान की दृष्टि से वे जरा अधिक निपुण समझे जाते थे । इसलिए उनका आध-पोण घण्टे तक व्याख्यान होता रहा पर उपस्थित समुदाय ने चौथमलजी को पुनः व्याख्यान देने का अनुरोध किया क्योंकि पहले दिन उन्होंने अपनी बुलन्द आवाज से गजलं आदि गाकर श्रोताओं का मन आकर्षित कर लिया था । चौथमलजी के बाद कुछ भाईयों ने जो हमारे धर्मस्थानक के अनुरागी थे उन्होंने हमारे सम्प्रदाय की एक साध्वी जो चौथमल जी की तरह हो गजलें आदि गाने में तथा पर कुछ प्रवनन करने में निपुण सी हो गई थी उसको भी धर्मों पदेश-देने के लिए आग्रह किया गया । नन्दलाल जी स्वामी को आज्ञा पाकर बहुत सकोच के साथ उस साध्वी ने थोड़ा सा प्रस्तावना रूप प्रवचन कर उसके सममन में एक दो गजलें गाकर सुनाई उस साध्वी का कंठ इतना मधुर तथा सूरीला था और उसके गाने को कला भी इतनो आकर्षक थी जिससे सुनकर चौथमलजी के व्याख्यान से भी अधिक सारो सभा लीन जैसी हो गई थी। फिर जब सभा की कार्यवाही शुरू हुई तो हम सब साधु लोग अपने धर्म स्थानों में वापस चले पाये। तीसरे दिन सुबह हमारे धर्म स्थानक में जब व्याख्यान शुरू हुआ तो लोगों की अत्यधिक ठठ जमी और उन श्रोताओं ने उक्त साध्वी जी से और अधिक गजलें प्रादि ग.ने की विनती की और उसने कई अनेक उपदेशात्मक गजलें गाकर श्रोताओं के मन को खूब रंजीत किया । उस दिन फिर हम साधु लोग उक्त सभा का कार्यवाही में सम्मिलित होने के लिए नहीं गए। दो-तीन दिन में कोन्फेन्स का वह मेला समाप्त हो गया और हम साधु लोगों ने भी अन्यत्र विहार करने का विचार किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001970
Book TitleMeri Jivan Prapanch Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1971
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size8 MB
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