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मेरो जोवन प्रपंच कथा
उसके सहारे जम्बु द्वीप आदि ढ़ाई द्वीप के नक्शों का मैं अवलोकन किया करता था। जिन दिनों उस भाई ने उक्त सत्यार्थ प्रकाश नामक पुस्तक मुझे लाकर दो उन्हीं दिनों में उक्त प्रकार से उन नक्शों आदि का अवलोकन कर रहा था । मेरी शृद्धा उस विषय में दृढ़ मूल थी । मैं मानता था कि जैन शास्त्रों में वगित ये सब बातें सर्वथा सत्य हैं उनमें शंका उत्पन्न होने जैसी कोई बात नहीं है परन्तु दुनियाँ के ओर लोग इन बातों को किस तरह मानते हैं और समझते हैं---इसका मुझे कोई ज्ञान नहीं था न मैंने अब तक ऐसी कोई पुस्तकें ही देखी थी और न इस भविष्य की चर्चा करने वाले कोई भाई से ही मेरा वैसा परिचय हुआ था ।
स्वामी दयानन्दजी का मुझे कोई विशेष परिचय ज्ञात नहीं हुआ था। मैं इतना जान सका था कि वे आर्य समाज नामक एक धर्म सम्प्रदाय के संस्थापक थे। और वे कई राजपूत राजाओं के बहुत पूज्यनीय थे । मेरे स्वर्गीय पिता ने भी उनसे यज्ञो पवित धारण किया था जिसका वर्णन मैंने अपनी प्रकाशित जीवन कथा में कुछ दिया है । इसलिए मेरे मन में स्वामीजी में प्रति अन्तर में कोई सद्भाव छिपा हुआ था । परन्तु जब मैंने इस तरह सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा और उसमें लिखे गये जैन धर्म विषयक आक्षेपात्मक विचार पढ़ने में आये तो मेरे मन में कुछ और ही प्रकार के भाव उत्पन्न होने लगे । मेरे मन में लगा कि जिनको जैन शास्त्रों में मिथ्या दृष्टि कहा है वे ऐसे ही लोग होते हैं । जैन धर्म प्रतिपादित सिद्धान्तों को विपरित दृष्टि से देखने का नाम मिथ्या दृष्टि है। मेरी मान्यता थी कि जैन शास्त्रों में जो कुछ लिखा गया है वह सर्वथा सत्य है और वह सब सर्वज्ञ भगवान का कहा हुअा है इसलिए उसमें शंका उत्पन्न होना भो मिथ्या दृष्टि के उदय का प्रभाव है इत्यादि ।
दो-तीन दिन बाद जब वह युवक पुनः मेरे पास आया और उक्त विषय में कुछ चर्चा करनी चाहो तब मैंने उससे उपर्युक्त बातें कही परन्तु वह तो एम० ए० जैसो शिक्षा प्राप्त युवक था उसने विज्ञान, इतिहास, भूगोल, गणित आदि अनेक विषयों को अच्छी शिक्षा प्राप्त की थी। मुझे उन विषयों का किंचित भी ज्ञान नहीं था। वह युवक अध्ययनशील था, धर्म और समाज विषयक अनेक पुस्तकें उसने पढ़ी थी। मेरी उक्त बातें सुनकर वह कुछ हंसने सा लगा उसने कहा कि महाराज आप धर्म गुरूत्रों को देश और धर्म की वास्तविकता का बहत कम परिचय होता है। हम लोग जो नई शिक्षा प्राप्त करते हैं और उसके द्वारा जिन विषयों और विचारों का हमें परिज्ञान प्राप्त होता है उसके कारण अब जो शिक्षित समाज उत्पन्न हो रहा है उसको हमारे शास्त्रों में लिखो गई ऐसी वेबुनियादी बातों पर किंचीत भी शृद्धा नहीं होती आज की स्कूलों में चौथी-पाँचवीं-छछी किताबें पढ़ने वाला लड़का भी यह निश्चित रूप से जान सकता है कि हमारी यह पृथ्वी कितनी लम्बी, चौड़ी, और किस आकार प्रकार की है। हमारे यहां जो दिन और रात होते हैं। उनका क्या कारण है । ये चन्द्रः और
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