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________________ मेरो जोवन प्रपंच कथा.. ऊपर जो मैंने वर्तमान में कितनेएक साधुओं के विचारों और प्राचारों में दिखाई देने वाले परिवर्तन को लक्ष्य कर कुछ बातें कहो हैं, उनका उद्देश्य केवल वर्तमान स्थिति का चित्रण करना मात्र ही है। मेरा इसमें कोई आक्षेपात्मक अथया निंदात्मक भाव बिल्कुल नहीं है। क्योंकि उस जीवन के बाद उक्त सम्प्रदाय के साथ मेरा न किपी प्रकार का कोई सम्बन्ध हो रहा और न मेरे मन में उस चर्या का कोई आकर्षण या महत्त्व हो रहा । मैं तो उसके बाद सदा के लिए अन्य ही जीवन में परिभ्रमण करता रहा । मैं तो यों अत्यन्त परिवर्तन प्रिय मध्य हूँ । मेरे मन का गठन तो विशिष्ट प्रकार के परिवर्तन शील पुद्गलों से ही हुआ है ऐसा मैं समझ रहा हूँ। जब से मैंने कुछ होश सम्भाला तब से मैं अपने जीवन मार्ग में सतत् परिवर्तन करता रहा है। इस परिवर्तन में मुझे किसी प्रकार का पूर्वाग्रह बाधक नहीं हुअा। जब कभी मेरे विचारों में परिवर्तन का कोई विशिष्ट कारण निमित्त बना तो मैं तुरन्त ही उसके अनुरूप परिवर्तन करने को तत्पर होता रहा हूँ। अपने अन्तर को अांदोलित करने वाले प्रबल विचारों के परिणाम स्वरूप परिवर्तन करने में मैंने किसी स्थान, किसी समुदाय, किसी पक्ष या किसी कार्य विशेष का कोई बन्धन स्वीकार नहीं किया ऐसे ह परिवर्तनशोल स्वभाव के कारण मैंने कई प्रिय स्थान छोड़ दिये और कई सम्प्रदाय विशेषों के बन्धन तोड़ दिये। वंसे ही विशिष्ट संस्थानों का सम्मानास्पद सम्बन्ध भो मुझे छोड़ना पड़ा । ऐसे कई प्रकार के परिवर्तन करते रहने में मुझे किसी प्रकार को हिचकिचाहट अनुभव नहीं हुई । मैं परिवर्तनशील प्रकृति को जीवन की प्राति का विशिष्ट तत्व मानता है । इसलिए जो कोई भी मनुष्य अपने अन्तर के विचरानुसार परिवर्तन करता है उसके प्रति मेरे मन में किसी प्रकार का प्रमादर भाव उत्पन्न नहीं होता । अतः जो कोई साधु मुनि अपने अन्तर को लक्ष्य कर स्वीकृत आचार विचारों में किसी विशिष्ट उद्देश्य से परिवर्तन करता है, तो मैं उसको प्रादर की दृष्टि से ही देखता रहता है। फिर मेरी यह भी मान्यता रही है कि अब तक हम किसी सम्प्रदाय विशेष का भेष धारण किये हुए हैं तब तक हमारा प्राचार भी उसी. के अनुरुप होना चाहिये । विचार परिवर्तन के साथ प्राचार में भी परिवर्तन, किया जाता है तो तदनुसार वेष का भी परिवर्तन करना चाहिये अन्यथा वह एक प्रकार का दांत्रिक जीवन होगा। व्यवहार में भी वेष के अनुरूप कर्म अर्थात्त प्राचार को संगतता सम्बन्धित है । पुलिस के कपड़े पहनने वाले मनुष्य से लोग यही अपेक्षा रखते हैं कि उसका व्यवहार उसके स्वीकृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001970
Book TitleMeri Jivan Prapanch Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1971
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size8 MB
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