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________________ ( ७४ ) मेरो जीवन प्रपंच कथा जानकारी थी उसको संक्षेप में कह सुनाई। यह सब बातें वह बहुत गम्भीर भाव से सुनती रहती थी और उसके मुखाकृति के भावों स मुझे ज्ञात होता था कि वह कोई गम्भीर चिंतन में पड़ जाती थी । ऐसा वार्तालाप उसके साथ दो-तीन दिन तक होता रहा । फिर वह अधिक समय उस बड़ी साध्वी तथा जिस बहन ने लम्बे उपवासों की तपस्वा ले रखी थी, उसके पास जाकर बैठा करती और उनसे विविध प्रकार के धार्मिक भाव जानने की चेष्टा करता रही । पर उन तपस्या करने वालों की वैसी कोई मनो भूमिका नहीं थी जो उस महिला की बातों को ठीक समझ सकें और ठीक उतर दे सके । मेरे पास भी उसको कुछ विशेष जान मिलने जैसी कोई अध्ययनात्मक सामग्री नहीं थी। तथापि मेरी जिज्ञासा वृति को वह ठीक समझ सकी थी और इस दृष्टि से मेरे साथ बैठकर कुछ जीवनोपयोगी बातें करती रही । उसने मेरे जीवन के विषय में भी कुछ प्रश्न पूछे । मैंने संक्षेप में परम्तु जीवन में पहली ही बार ऐसी व्यक्ति के सन्मुख अपने भाव प्रकट किये । इसमें खासकर अपनी माता के वियोग आदि का मैंने वर्णन सुनाया। इसे सुन कर उसका हृदय आर्द्र - भाव से भर उठा और उसने खुले मन से कहा कि जब आपकी माता के प्रति ऐसी संवेदना है ती उसे पाप कभी अपने पास क्यों नहीं बुलाना चाहते प्रादि । तब मैंने कहा कि हमारा साधु धर्म वैसा करने की प्राज्ञा नहीं देता तब उसने कहा कि इस प्रकार का यह साधु जीवन मुझे कुछ विचार शून्य सा लगता है । अापके जीवन का लक्ष्य कोई विशिष्ट होना चाहिये आप में कुछ ऐसी प्रांतरिक शक्ति दिखायी देती है जो योग्य समागम के मिलने पर खूब विकसित हो सकती है । मैंने उसकी ये बातें बहुत ध्यान पूर्वक सुनी और मेरे मन में एक प्रकार का कुछ विचित्र आन्दोलन होने लगा। उसकी कुछ ब तें तो मुझे चुभ सो गई : ये सब बातें बैठी-बैठी वह लघु साध्वी भी सुनती रही पर इसका मर्म उसके समझ में कुछ भी नहीं आया । परन्तु उसके मन में मेरे बाल्य जीवन सम्बन्धी बातें जानने को विशेष जिज्ञासा हो पाई। दो-तीन दिन बाद वह महिला सन्यासिनी वहाँ से पूना चली गई। मुझे अपना पता दे गई और कहा कि मैं कभी आपको पत्र लिखू तो मुझे उत्तर मिलेगा ? तब मैंने कहा कि हम अपने साधु धर्म के मुताबिक किसी को अपने हाथों से पत्र नहीं लिखते न हम किसी के आने जाने का भी कोई संदेशा भिजवाते है । वह सन्यासिनी जब जाने लगो ता उस श्राविका ने उसको खर्ची की दृष्टि से ५-७ रुपये दिये। इस प्रकार वारी के उस चातुर्मास में उक्त शिक्षक तथा महिला सन्यासिनी के समागम से मेरे मन में जिन विचारों का अज्ञात रूप से बीजारोपण हुमा वह बाद में जा कर कैसे अंकुरित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001970
Book TitleMeri Jivan Prapanch Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1971
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size8 MB
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