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________________ (७२) मेरी जीवन प्रपंच का वेष क्यों धारण किया है और कहां की रहने वाली हैं ? तब उसने कहा कि मैं हरद्वार की तरफ से मा रही हूँ और इधर आगे दक्षिण में रामेश्वर की यात्रा करने जा रही हूँ। मेरी जन्म भूमि बंगाल है जहां पर परमहंस, स्वामी रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुष हो गये हैं। मैंने स्वामी विवेकानन्द की शिष्या भगिनी निवेदिता के आश्रम में कुछ शिक्षा पाई है। मैंने अंग्रेजी की भी उच्च शिक्षा प्राप्त को है और बाबु अरविन्दघोष जैसे देशभक्त पुरुषों के अनेक व्याख्यान सुने हैं। इससे मेरे मन में गृहस्थ जीवन में न पड़कर सन्यास धर्म की दीक्षा लेकर देश और समाज की सेवा करने के भाव उत्पन्न हुए और फिर कलकत्ते में हमारे देश के स्वामीनों का एक मठ है जिसमें कई बड़े विद्वान, वकील, डाक्टर आदि सन्यासी बनकर रहते हैं और वे देश के अनेक भागों में जाकर लोगों को देश की और धर्म की सेवा करने का उपदेश आदि देते रहते हैं। हमारे वहां एक ऐसी ही बड़ी विदूषी माताजी सन्यासी के रूप में रहती हैं । मैं वहां रहकर वैसा सेवा कार्य करती रहीं। फिर मेरी इच्छा कुछ देशदर्शन करने की और तर्थ यात्रा करने की हुई इसलिए मैं यह परिभ्रमण करने के लिए निकल पड़ी हूँ। मैंने हरद्वार के पास एक आश्रम में १-२ वर्ष बिताये और वहां पर एक स्वामीजी के पास से योग और प्राणायाम की बहुतसी क्रियाएं सीखीं। हमारे बंगाल देश में कुछ देश प्रेमी बहुत से नवयुवक है जो अंग्रेजो सरकार के विरुद्ध बड़े आंदोलन करते रहते हैं । उन में से कईयो को पकड़ पकड़ कर अग्रेज सरकार ने जेलों में डाल खे है । इधर महाराष्ट्र के देश भक्त तिलक महाराज भी हमारे देश के युवकों के प्रति बड़ी सहानुभूति रखते हैं और अपने पत्रों में लेखादि प्रकट करते रहते हैं । पूना इस प्रकार का बहुत बड़ जाग्रति का केन्द्र है। इसलिए मैं यहां से पूना जाना चाहती हूँ इत्यादि बहुत सी बातें उस महिला ने जी खोलकर हम लोगों के सामने कहीं - मैं तथा वे साध्वियां भी इस अपरिचित महिला की बातें बहुत मुग्ध भाव से सुनते रहे। मेरे लिये यह सब बड़ी विचित्र बातें थीं इनका कुछ रहस्य उस समय मेरी समझ में नहीं पाया, मैंने इससे पहले सन्यासिनी दिखने वाली महिला के मुख से ऐसी बातें सुनने की कभी कोई कल्पना नहीं की थी। इससे पूर्व कुछ ही दिन पहले उक्त महाराष्ट्रीय शिक्षकजी के द्वारा जो देश भक्ति आदि के बारे में कुछ सुना था उसों से मिलती जुलती कुछ बातें इस महिला के मुख से भी सुनकर मुझे एक प्रकार का विस्मय सा होने लगा। फिर उस महिला ने कहा कि मैं र हां दो चार दिन रहना चाहती हूँ और आप लोगों की ऐसी लंबी तपस्या आदि का अनुभव करना चाहती हूँ, तो मेरा यहां कहीं ठहरने का प्रबध हो सकता है ? मैं दिन में एक ही बार भोजन करत हूँ और कोरो जमीन पर अरने पास जो आसन है उसको बिछा कर उस पर सो जातो हूं। सुबह शाम कहीं एकान्त में बैठकर मैं अपना भजन पाठ आदि करतो रहत है। यह सुनकर मैं तो विचार में पड़ गया, मैं उसका क्या जवाब दू। यह सोचने लगा परंतु उस विचक्षण लघु साध्वी ने कहा कि ये माताजी, मेरी माता के पास रह सकती हैं । जैसा कि उपर मैंने सूचित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001970
Book TitleMeri Jivan Prapanch Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1971
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size8 MB
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