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________________ { ७० ) मेरो जोवन प्रपंच नन्द, बाबू अरविन्द घोष तथा कुछ क्रान्तिकारी पुरूषों की जीवनियाँ थी । मैं उन पुस्तकों रस पूर्वक ध्यान में पढ़ने लगा, हम साधु लोग न कभी किसी अखबारों को हाथ में लेते और न कभी पढ़ते ही थे तथा ऐसे विषयों की न कोई पुस्तकें ही देखी थी और न पड़ी थी जीवन में पहली ही बार इस समय कोई अखबार देखने में पाया और वह भी मराठी कसु, सिद्ध केसरी पत्र ! १०-१५ दिन के बाद वे शिक्षक तो अपने स्थान पर चले गए पर उनी उस अल्पकालिन समागम ने मेरे मानस क्षेत्र में ऐसे बीज डाल दिये जो आगे चलकर अनेक में अंकुरित हुए और मेरे जीवन क्रम में विशिष्ट परिवर्तन करने वाले बनें। उन शिक्षक का । मुझे नःम ही मालूम रहा और न कभी उनकी कोई विशेष स्मृति ही हुई केवल मन में इतन हायस्पष्ट स्मरण अंकित हो गया कि उनके समागम से मेरे मन का रूह लक्ष्य विचलित होरे लगा। जिस एक बाई ने बड़ी साध्वी के साथ एक महिने का उपवास करना प्रारम्भ किया था उसकी बड़ी करूण कहानी मेरे जानने में आयी । वह बाई जो उक्त छोटी साध्वो थी उसके ननन्द होतो थी। उसके पिता ने एक अच्छे लखपती धनिक के साथ उसको ब्याह दी थी, जिसके उम्र ५५ वर्ष से अधिक थो और जो क्षय रोग से पीड़ित था। उस धनिक की पहली स्त्री कुह वर्ष पहले मर गई थी और वह नि:संतान था। उसके वृद्ध माता-पिता मौजूद थे, उन्होंने जान हुए भी कि हमारा लड़का क्षय राग से निहीत है और कुछ ही दिनों का मेहमान है। तब भी उन्होंने किसी प्रकार अपना लगाव लंगाकर उस लड़की के मां-बापों को समझा बुझा कर उसकी शादी करवादी । मा-बप जानते थे ता भी बडे सेठ के घर में लडकी जायेगी और उसके धा का कोई खास हकदार न होने से लड़की ही मालिक बन जायेगो इस प्रकार की कुस्सोत भावन से उस लड़की का ब्याह कर दिया गया। लड़को काफो समझदार था ओर मराठी ७-८ किताब तक पढ़ी हुई थी बहत स्वरूपवान और सुशोल स्वभाव को थ. पातु ऐसो अबोध बालाओं को रूढी प्रिय और नितान्त विचार हीन माता-पिताओं के सामने क्या चल सकता है ? कोई * १० महिने बाद उस लड़का का वह पति उर निराधार छोड़कर स्वर्ग को चला गया । महिनों तक वह लड़की अपने दुर्भाग्य को कोसतो रहो और दिन रात करूग क्रन्दन करती रही उसका न खाना-पीना अच्छा लगता था न किसी से वह बात-चीत हो करतो थीं। जब मात्र पिता ने उसे अपने यहाँ ले जाना चाहा तो वह साफ-इन्कार हो गई। वृद्ध सासु श्वसुर जरा सो झदार थे और कुछ धार्मिक भाव वाले भी थे इसलिए उन्होंने सोचा कि कहीं ऐसे साधु सन के पास ले जाया जाय जिस। इसके मन को कुछ शान्ति मिले । उन्होंने जब सुना कि वा Jain Education International For Privaté & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001970
Book TitleMeri Jivan Prapanch Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1971
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size8 MB
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