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________________ ( ५८ ) मेरो जीवन प्रपंच कथा वहीं ठहरकर विश्रान्ति लेना सोचा । घण्टे-डेढ़ घण्टे बाद बनियों तथा किसानों के घर जाकर पहले कुछ निवेद्य पानी मांग लाने के लिए तपस्वोजी और बड़े शिष्य अचलदासजी निकले, प्रायः भिक्षा लाने का काम वेही दोनों गुरू-शिष्य किया करते थे। कभी कभी अचलदासजी और मुन्नालालजी गोचरी के लिए जाया करते थे, हम दोनों छोटे साधु केवल पात्र धोने आदि का काम किया करते थे, मैं जब तक उस साधु वेश में रहा तब तक कभी गोचरी लेने को नहीं गया । दूसरों के परिश्रम से मैं अपना पिंड भरता रहा और बैठा -बैठा कुछ न कुछ पढ़ता रहा । तपस्वीजी पात्र में कुछ गरम पानी ले पाये और कहाँ कहाँ रोटियाँ मिल सकती है उसका भी कुछ पता लगा पाये। फिर वे दोनों गुरू शिष्य झोलो लेकर बनियें और किसानों के वहां से कुछ रोटिय और छाछ मग लाए, दापहर के समय हमने पाहार किया थकान मिटाने को दृष्टि से सारा दिन प्रायः विश्रान्ति ली। इस प्रशस में आहार प्रायः एक दफा ही किया करते थे, सायंकाल के प्राहार के लिए कोई अवसर नहीं होता था । संध्या समय ह ने पर प्रतिक्रमण करके नवकार मंत्र स्मरण करते हुए निद्रा ली । पर कोई घण्टा-डेढ़ घण्टा रात बीतने पर हम जिस चौरे में सो रहे थे उससे प्रायः २००-३०० कदम के फासले पर कुछ अन्त्यज जाति के घर थे, उन लोगों ने एक बड़ा सा सुअर कतल किया उस पशु को कतल के समय ऐसो भयकर चोख मेरे कान में पड़ी जिसको सुनकर मैं अत्यन्त उदविघ्न हा उठा । मैंने अपनो जिन्दगी में ऐ7 जघन्य इत्य का कभो अनुभव नहीं किया था । पशु को कतल करने वाले बड़ी कुल्हाड़ो से उसका गला काट रहे थे। काई ५-७ मिनिट तक यह चिल्लाहट मैं सुनता रहा, आखिर में वह कृत्य शान्त हुा । ___ मैंने तपस्वीजी से पूछा कि यह सुअर को चिल्लाहट कसे सुनाई देरही है ? तपस्वीजो उस प्रदेश में पहले विचरे हुए थे, इसलिए महाराष्ट्र प्रदेश में बमने वाले ऐसे मांसाहारी अन्त्यज लोगों का उन्हें परिज्ञान था। मालवे की अपेक्षा दक्षिण में ऐस काफी लाग रहते हैं जो प्रायः मांसाहारी होते हैं दक्षिण की महार, माँग आदि ऐसो अन्त्यन वर्ग को जातियाँ है जो प्रायः सुअर का मांस अक्सर खाती रहती हैं ये लोग प्रसंग-प्रसग पर छाटे-बड़े ऐसे सुअरों को खुले आम कुल्लहाड़ी से काटते रहते हैं, मुझे इसकी कोई कल्पना नहीं थी, इसलिए उस रात्रि में हाने वाले इस प्रकार के जघन्य कृत्य का अनुभव मेरे मन में एक बहुत कालव्यापी दुःखद स्मरण अकित हो गया । आज भी मुझे उस पशु की वे. प्राण विदारक चीखें मेरे कान में मानों गुन रही है ऐसा मुझे लगा करता है । सुबह होने पर हम लोगों ने वहाँ से आगे चलने का उपक्रम किया, रास्ते में चलते समय मेरे मन को उस रात की घटना का वह दुखोत्पादक स्मरण वारम्बार सताता रहा। हम ५-७ मील का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001970
Book TitleMeri Jivan Prapanch Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1971
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size8 MB
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