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राजकीय एवं सामाजिक कार्य करने वाले अनेक प्रकार के लोगों के साथ, समान आसन पर बैठकर, फोटू आदि खीचवाते हैं और उन्हें पत्रों में प्रकाशित करवाते हैं ।
मेरो जोवन प्रपंच कथा
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रेडियो स्टेशनो में जाकर वार्तालाप, परिभाषण आदि का आयोजन करवा कर नका आकाशवाणी द्वारा प्रसारण कार्य प्रादि करवाते हैं। मेरे उस संकीर्ण जीवन की दृष्टि से ये सब बातें मुझे किसी अन्य देश काल की घटनाओं जैसी श्राभाषित होती है । जैन साधुत्रों के जीवन में ऐसा परिर्वतन कभी हो सकेगा, इसकी मुझे उस समय कल्पना भी नहीं हो सकती थी ।
जिस प्रकार मैंने उस साधु जीवन में मैले-कुचैले वस्त्र पहने थे वैसे मैले-कुचैले वस्त्र अब ये साधु नहीं पहनते हैं । इनके वस्त्र जिनको जैन ग्रागम में घट्टा-मट्टा टिपट्टा - पांडुरपट्ट-पावरणा जैसे शब्दों से प्रालेखित किया है, वैसे शुभ्र धौत वस्त्र ये साधु पहनते हैं । मुँह पति भी वैसी उज्जवल और शुभ्र रखते हैं। जिसको देखकर ऐसा आभास हो जाता है कि मानों उसकी इस्त्री की गई हो । तेरापंथी समुदाय वाले साधुयों में तो यह बात विशेष रूप से दृष्टि गोचर होती है । लम्बी डंडी वाला रजोहरण अब रजयानी धूल का हरण करने वाला नहीं है परन्तु एक शोभा का अलंकरण सा बन गया है और तेरापंथी समुदाय वाले साबुप्रो के पान ता रजोहरग को प्लास्टिक के आवरण से ढका हुआ भी देवा गया है । मैं इन बानों को साधुयों में जो विचार परिवर्तन हो रहा है । उसा के परिणाम स्वरूप मानता हूँ ।
इन परिवर्तनों के साथ मैं जब अपने जीवन के प्रालेखित क्षुद्र सस्मरणों का मिलान करता हूँ तो कभी कभी मुझे ऐसा भास होने लगता है कि क्या मेरे ये संस्मरण वास्तविक अवस्था के द्योतक हैं या स्वप्नावस्थ के ?
मुझे उस जीवन की जब मोटी-मोटी बातें याद आती हैं तो मुझे विस्मय सा हो आता है। कि किस तरह मैंने उस जीवन की चर्या का पालन किया ?
मुझे याद रहा है कि जब से मैंने उस पन्द्रह वर्ष की नाबालिग अवस्था में वह दीक्षा ली, तबसे लेकर प्राय: इक्कोस वर्ष की वालिग कहलाने वाले अवस्था तक जब मैं पहुँचा, तब मैंने उस वेष का परित्याग कर दिया । उस वेष में रहते हुए, मैंने निम्न प्रकार की चर्या का अनुसरण किया । मैंने कभी पानी से शरीरका प्रक्षालन नहीं किया । जो वस्त्र मिला, उसे पहते-पते फटने तक कभी पानो से नहीं धोया । शरीर को ढकने के लिए केवल तीन चद्दर और दो-तीन चोलपट्टी रखे । कोई गर्म कम्बल कभी नहीं लिया । बिछाने के लिए छ: फुट लम्बा
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