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परन्तु कई कच्चे पक्के नव-दीक्षित साधु इस कष्ट दायक क्रिया को सहन न कर सकने के कारण लाचार होकर साधु वेश का परित्याग भी कर देते हैं । इस प्रकार के कई उदाहरण मेरे अनुभव में आये हैं ।
मेरा प्रथम लोच, धार वाले चौमासे में हुआ । इस समय मेरे केश काफी लम्बे हो गये थे । चौमासे में पर्युषण के पहले ही केश लुचन कर डालने की प्रथा चालु है । हम तपस्त्रीजी समेत पाँच साधु थे जिसमें तीन तो बड़ी उम्र वाले थे और मैं तथा मोतीलालजी छोटी उम्र के थे । तपस्वीजी महाराज के सिर पर तो इने गिने बाल थे । अचलदासजी और मुन्नालालजी काफी बड़ी उम्र के थे और उनके सिर पर केशों का कोई अधिक भराव नहीं था । लोच वाले दिनों में पहले उन तीनों बड़े साधुत्रों ने आपस में एक दूसरे ने अपना केश लुंचन कर लिया । अब बारी आई हम दोनों छोटे साधुत्रों की । मोतीलालजी मुझ से कुछ पहले दीक्षित हो गये थे इसलिये उनका दो तीन बार केश लुंचन हो चुका था । परन्तु जिस समय उनके केशों का लुचन करने के लिये उनके पिता बैठे तो मोतोलालजी को अधिक कष्टानुभव करते हुए मैंने देखा । वे एक साथ मस्तक के सारे केशों का लुंचन करा नहीं सकते थे । कई दिनों में धोरे धोरे उनका केश लुचन का कार्य समाप्त हुआ ।
मेरो जीवन प्रपंच कथा
मेरा केश लुचन करने को तपसीजी ने मुझे बिठाया तो मैं मन को कड़ा करके बैठ गया । तपसीजी ने अपने दो घुटनों के बीच मेरा सिर दबा लिया और वे राख भरी हुई अपनी चिमटी से मेरे सिर की चोटी के स्थान से दस दस बीस बीस बाल पकड़ कर उखेड़ने लगे। यूं तपसी जो लोच क्रिया करने में निपुण थे । उनका हाथ जल्दी जल्दी काम करता था और चिमटो में जितने बाल पकड़ लेते थे उनको उखाड़े बिना वे नहीं छोड़ते थे । कई साधु इस प्रकार हैं और उनके पास ऐसे कई नये साधुत्रों को लुंचन क्रिया कराई जाती है ।
केश लुंचन क्रिया में अच्छे निपुण होते
मुझे प्रथम बार की लूंचन क्रिया में काफी कष्टानुभव होता रहा था । परन्तु मैंने किसी प्रकार अपने कष्ट का भाव व्यक्त न होने दिया । तपसी जी आधे सिर का लोच किये बाद बोले कि जो अधिक दुख होता हो तो प्राजइतना ही कर लिया जाय। दो तीन दिन बाद फिर बाकी का लोच कर लेंगे ।
मैंने सोचा कि बार बार ऐसा दुख मन में सहन करना - इसकी अपेक्षा एक बैठक ही उसे पूरा कर लेना अच्छा है । मैंने तपसीजी को कहा ग्राप इसी समय पूरा लोच कर डालें । कोई दो तीन घंटे में वह क्रिया पूरी हो गई ।
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