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________________ स्थानकवासी संप्रदाय की जीवनानुभव (१६) मैंने धीरे धीरे पुराणे ३००-४०० वर्ष पहले के लिखे गये ग्रन्थों की लिपि के अनुरूप. अपनी लिपि बनाने का अभ्यास कर लिया था। मैंने सबसे पहले कंठस्थ किये गये दशवकालिक सूत्र को पूरी प्रतिलिपि अपने हाथ से लिखनी शुरू करदी। इसका पूरा करने में मुझे कई महिने लगे। प्रतिदिन १५,२० गाथाओं को प्रतिलिपि में इस प्रकार किया करता था : स्याहा और बरू को कलम का उसी प्रकार हमेशा उपयोग किया जाता था जिसका सूचन मैंने ऊपर क पक्तियों में किया है । स्याही के रखने को और रोज सुखाकर उसे फिर दूसरे दिन घोलकर लिखने योग्य बनाने में बड़ा श्रम सा लगता था । गहस्यों को दुकानों पर स्याही को दवात भरो रहती थी परन्तु हम अपने आचार के कारण उस स्याही का वै ।। उपयोग नहीं कर सकते थे। मन में कुछ अटपटा सा लगा करता था परन्तु प्राचार के पालन में शिथिलता का भाव मनमें उत्पन्न हाने देना पार बंधन का कारग समझा जाता था । दो तीन बररा के प्राचार पालन से मनमें ऐसे संस्कार दृढ़ से दृढ़ होते गये थे । अन्य किसी संस्कार या विचारों के आगमन का उस समय हृदय में कोई द्वार नहीं था । अज्ञात श्रद्धा के कारण ही ऐसा कठोराव.र का भी पालन मत पूर्वक होता रहता था । एक गांव से दूसरे गांव में विहार करते समय कभी धूप से तप्त गर्मियों में चलने का अवसर आता था तो साथ में पाने के लिये जा कुछ पानो दोपहर की गोचरी के समय बहोर कर लाते थे, उसीका कुछ भाग रास्ते में चलते समय पाने के लिये साथ में एक पात्र में रख लिया करते थे । पर वह पानो, जिस गांव से निकलते थे उससे दो कोस से अधिक दूरी पर लेजाना निषिद्ध या । इसलिये चलते २ दो कोस (चार माइल । जब पूरे होने आते थे, तब किसी एक शृद्ध भूमि में बैठ कर पानी का अन्तिम उपयोग कर लिया जाता था । बाकी जो पानी कुछ बच जाता तो उसे वहीं शुद्ध भूमि पर परठ देते थे। फिर बाद में चाहे जितनी प्यास लगे तो उसे बुझाने का कोई प्रांग नहीं रहता था । ऐसा तब अवसर प्राता था जब विहार का रास्ता कहीं ५ १० मील का लम्बा हो और शाम तक गन्तव्य स्थान पर न पहुँचा जा सकता हो । सूर्यास्त के बाद तो चलना सर्वथा निषिद्ध या । अतः सूर्यास्त के पहले ही किसी गांव में जाकर रात्रि निवास के लिये अपना स्थान खोज लेना अावश्यक होता था । ऐसा प्रसंग जब भाता था, जब किसो गांव में जैन भाइयों को कोई बस्तो न हो । प्रायः मालवे में तो हमको ऐसे प्रसंग नहीं पाये, परन्तु प्रागे चल कर, जैसा कि बताया जायगा, दक्षिण देश के प्रदेशों में विचरते समय हमको ऐसे अनेक अनुभव हुए । धार से विहार कर हम ल ग कई गांवों में होते हुए इन्दौर पहुंचे । इन्दौर मालवे का सुप्रसिद्ध नगर है वहाँ जैनियों की बस्ती भी काफी बड़ी है। स्थानक वासो सम्प्रदाय के आम्नाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001970
Book TitleMeri Jivan Prapanch Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1971
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size8 MB
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