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________________ मेरी जीवन प्रपंच कथा मुनि जिनविजय लिखित जीवन-कथा का उत्तर भाग निर्लक्ष्य जीवन बीता मेरा, पाया न कुछ मैंने तत्व विशेष। आया ज्योंही जा रहा हूं जगत से, पार चिना दृष्टि उन्मेष । -स्वानुभूति स्थानकवासी सम्प्रदायका जीवनानुभव पूर्व प्रकाशित जीवन-कथा को लगभग ५ वर्ष व्यतीत होने जा रहे हैं । उस समय खयाल था कि कुछ समय बाद आगे का कथा-प्रसंग लि बना प्रारंभ कर दिया जायगा पर इस बीच कई अन्यान्य कारण उपस्थित होते गये और मन लिखने में उत्सुक नहीं रहा। बोच में कई भाइयों के पत्र भो आते रहे कि मैं अपनी जीवन-कथा का अगला भाग पालेखित करूँ, पर मनमें इस कथा को लिखने के लिये वैसा कोई उत्साह प्रगट नहीं हुआ। ___ इस बोच मेरा स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन अधिक क्षीण होता गया और मुझे अपने जीवन के विषय में कोई विशेषता का भाव अनुभव न हुआ । इस वर्ष के पिछले कई महीनों मुझे अपने अहमदाबाद वाले स्थान में रहने का प्रसंग उपस्थित हुआ । वहाँ पर भी कई मित्रों ने प्राकर इस कथा के आगे का वर्णन लिख डालने का आग्रह किया। कुछ मित्रों ने तो कहा कि यदि मैं लिखवाना चाहूँ तो वे इस काम के लिये अपना समय भी देने को तैयार हैं । एक अच्छे गुजराती लेखक तो नियमित रूप से पाकर मुझसे जीवन-कथा के भिन्न भिन्न प्रसंगों का लेकर प्रश्न पूछने लगे और मैं उनका उत्तर यथा स्मरण लिखवाता रहा । यो प्रायः एक महीने तक यह क्रम चलता रहा और उन्होंने कोई २००, ३०० पृष्ठों जितना मेटर लिख डाला परन्तु यह काम गुजराती भाषा में हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001970
Book TitleMeri Jivan Prapanch Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1971
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size8 MB
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